Saturday, 24 August 2013

“दक्षिणेश्वर काली मंदिर-कोलकाता”




दक्षिणेश्वर काली मंदिर-कोलकाता

सुबह हुई आज गुरूवार और जुलाई की 14 तारीख थी सगाई का कार्यक्रम शाम 7 बजे होना निश्चित था बीच के समय का उपयोग कैसे हो, इसके लिए मैंने प्रसिद्ध काली मंदिर दक्षिणेश्वर की यात्रा का कार्यक्रम बना लिया दक्षिणेश्वर की महाकाली ही प्रसिद्ध संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आराधिका थीं दक्षिणेश्वर का यह मंदिर भागीरथी के तट पर स्थित है और मुख्य शहर से करीब 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित | मंदिर की विशालता देखकर मैं काफी अभिभूत हुई साथ ही परिसर का विस्तार देखकर भी यह मंदिर दक्षिणेश्वर गाँव में करीब 60 एकड़ भूमि पर बनाया गया है माँ काली के मुख्य मंदिर के अलावा भी परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के बहुत सारे मंदिर है कहा जाता है कि सन् 1847 में एक निषाद जाति की महिला ने यह भूमि 60 हजार रुपये में खरीदी थी और इस भूमि पर मंदिर स्थापित किया जाना था मंदिर के मुख्य पुजारी के पद पर आसीन होने के लिए जब ब्राह्मण समुदाय का कोई व्यक्ति तैयार नहीं हुआतो इसका भार रामकृष्ण परमहंस ने अपने कंधों पर लियाकहा जाता है कि रामकृष्ण को महाकाली का इष्ट था और वे साक्षात उनसे वार्तालाप करते थे उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उन्हें समूचे विश्व में प्रचारित किया और उनके नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था रामकृष्ण मिशन’ का गठन कियाजो आज भी सामाजिकसांस्कृतिक तथा लोक कल्याण के क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ तत्पर और संलग्न है रामकृष्ण की ख्याति इस कारण भी हुई कि उन्होंने अपने को किसी एक धर्म अथवा संप्रदाय तक सीमित नहीं रखा अपितु उन्होंने सर्वधर्म समभाव के प्रति अपने को समर्पित कर दिया दक्षिणेश्वर मंदिर का यह परिसर उस तपस्वी संत की इस प्रतिबद्धता का स्वयं साक्षी है  इस परिसर की जमीन का एक हिस्सा उन्होंने तत्कालीन एक सूफी संत गाजी साहब को दे दियाएक हिस्सा मुस्लिमों के कब्रिस्तान के लिए और एक हिस्सा भागीरथी के तट पर हिन्दुओं के श्मशान के लिए समर्पित कर दिया स्वामी रामकृष्ण परमहंस की यह तप:स्थली आज भी उतनी ही मनोरम और शांतिपूर्ण हैजैसी वह इस महान संत की भौतिक उपस्थिति में कभी रही होगी |

मुख्य मंदिर में स्थापित भगवती महाकाली की आदमकद प्रतिमा ने मुझे इस कदर विमोहित कर लिया कि लगा माँ अभी-अभी बोल उठेंगी |उनकी भयावहता के बावजूद उनके मुखमंडल पर बिखरी मधुर मुस्कान की कांति बहुत निर्मलआह्लादकारी तथा अपने भक्तों को आश्वस्त करती हुई समझ में आई इस मोहकता का अद्भुत आनंद मेरे भीतर प्रवेश कर गया था और मैं विजड़ित विमोहित सी बहुत देर तक अपलक उन्हें निहारती ही रही मेरी यायावर जिन्दगी में संभवत: ऐसा पहली बार हुआ था कि मैं अपने को किसी अज्ञात और अपरिचित परिवेश में अनुभव कर रही थी मेरी उत्सुकता बहुत कुछ जान लेने के लिए तड़प उठी थी और एक छोटा सा इतिहास जो मेरे सामने खुलावह बहुत ही ह्रदयग्राही समझ में आया इस क्रम में मैंने जो कुछ जाना उसे विस्मय बोधक ही कहा जा सकता है निर्माण के प्रथम क्रम में भागीरथी के किनारे खूब चौड़ा और पक्का घाट बनाया गया जानकारी यह भी मिली कि इसे बनाने का ठीका कोलकाता की सबसे प्रसिद्ध कंपनी मेकिनटोस एण्ड कंपनीको दिया गया था घाट बनाने का यह ठीका उस कंपनी को एक लाख साठ हजार रुपये में दिया गया था घाट पर स्नानार्थियों के पवित्र स्नान के लिए पक्की सीढ़ियाँ बनाई गई थीं इस निर्माण की एक खूबी यह भी देखने को मिली कि सौ साल से ऊपर बीत जाने के बाद इनमें किसी तरह की कोई टूट-फूट नजर नहीं आती घाट के दोनों सिरों पर छ: छ: की संख्या में शिवजी के सुन्दर मंदिर स्थित हैं और बीच का हिस्सा स्नानार्थियों को स्नान करने के लिए सुरक्षित कर दिया गया है दक्षिणेश्वर मंदिर में इस तरह 12 की संख्या में शिव मंदिर और इन सभी मंदिरों को अलग-अलग नाम से संबोधित किया जाता है घाट के दक्षिण दिशा में जगनेश्वर, जलेश्वर, जगदीश्वर, नागेश्वरनन्दीश्वर और नरेश्वर है तथा उत्तर दिशा में जोगेश्वर, जतनेश्वर, जतिलेश्वर, नकुलेश्वर, नकेश्वर और निरजरेश्वर हैं इन सभी मंदिरों में अलग-अलग शिवलिंगों की स्थापना की गई है मान्यता यह है कि मुख्य शिव जोगेश्वर महादेव’ है और बाकी के शिव उनके संरक्षक की भूमिका में हैं इन्हें रूद्र कहा जाता है महाकाली के मंदिर के दर्शनार्थी इन शिव मंदिरों में भी विधिवत पूजन-अर्चन करते हैं यहाँ मैंने बहुतों को विधिपूर्वक रुद्राभिषेक कराते हुए देखा इससे लगा कि भले ही दक्षिणेश्वर का यह प्रसिद्ध मंदिर महाकाली के मुख्य मंदिर के चलते ख्याति लब्ध हैलेकिन परिसर में शिव मंदिरों का महत्त्व भी कहीं कुछ कम नहीं है |

शिव मंदिर से पूर्व दिशा में काली मंदिर तक सुविस्तारित बीच का प्रांगण काफी लंबा चौड़ा है यह करीब 440 फिट लंबा और  220 फिट चौड़ा हैपरिसर का पक्का फर्श बहुत साफ-सुथरा चिकने और मजबूत पत्थरों से निर्मित है पूर्व दिशा के फैले हुए अहाते में एक विष्णु मंदिर भी है और उसकी बगल में रामकृष्ण परमहंस की आराध्या माँ काली का मंदिर है माँ काली विकट रूपा है और पौराणिक मान्यता के अनुसार ये शिव-पत्नी तथा दुष्टों की संहार कर्ता मानी जाति है इनके पादपक्षों के नीचे शिव शांत मुद्रा में लेटे हुए हैं और देवी रौद्र रूप में अपनी लाल जिह्वा को निकाले उन पर खड़ी हैं देवी के एक हाथ में खडग है और उनकी  आदमकद मूर्ति प्राय: नग्नप्राय है मैंने ये तो अपने यात्रा-क्रम में माँ काली की बहुत सारी प्रतिमाओं का दर्शन किया हैलेकिन जितनी जीवंत मुझे दक्षिणेश्वर मंदिर की प्रतिमा लगी वैसी अन्य कोई नहीं गर्भगृह में स्थापित देवी के इस विग्रह रूप को दक्षिणेश्वर भवतारिणी’ कह कर पुकारा जाता है जितना भव्य और सुविस्तारित देवी का गर्भगृह है उतना ही उस गर्भगृह के शिखर पर स्थापित गुम्बद भी है गुंबद की नक्काशी इतनी सुन्दर है कि लगता है कि उसमें अनेकों चमकने वाले सुन्दर रत्न पिरोये गये हैंमंदिर के भीतरी भाग का फर्श उच्चकोटि के संगमरमर से निर्मित है उसके ऊपर दो सीढ़ियों पर काले पत्थर की वेदी बनी हुई है वेदी के ऊपर चाँदी के पंखुरियों वाले एक सहस्त्रदल कमल के ऊपर महाकाल शिव लेटे हुए हैं उनकी यह प्रतिमा भी संगमरमर से ही  निर्मित है चतुर्भुज महाकाली की प्रतिमा काले पत्थर से निर्मित है वह अपना दाहिना पाँव भगवान शिव की छाती पर रख विकराल रूप में सस्मिता खड़ी हैं उनकी रक्तवर्ण जिह्वा बाहर को निकली हुई है भगवती भवतारिणी के बायें हाथ में रक्त-स्नान खडग है और दूसरे हाथ में राक्षस का कटा हुआ सिर हैउनका दाहिना हाथ अपने भक्तों को आश्वस्त करता हुआ वरद मुद्रा में हैतो दूसरे हाथ में मधुपात्र है देवी की प्रतिमा विविध आभूषणों से श्रृंगारित है देवी के गले में बत्तीस नरमुंडों की एक माला भी पड़ी है प्रतिमा को रक्तवर्ण जपाकुसुमों की माला से भी सजाया गया है |शिल्पकारों ने बहुत खूबसूरत चाँदी के सिंहासन वाला एक मंदिर बनाया है माँ काली की वेदी के पश्चिम तरफ एक गवाक्ष में एक शेर की प्रतिमा स्थापित है शेर खड़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है पूर्व की तरफ त्रिशूलछिपकली एवं एक स्यार की प्रतिमा स्थापित है पूछने पर पता चला कि इन प्रतिमाओं का तांत्रिक महत्त्व है वेदी के नीचे की सीढ़ी पर चाँदी के सिंहासन पर दो पत्थरों के बीच भगवान नारायण की प्रतिमा है लाल कपड़े में चाँदी की किनार वाला सिंहासन और दूसरा रामलला का विग्रह जिसे एक संत ने उपहार स्वरूप श्री श्री रामकृष्ण परमहंस को दिया था स्थापित है वेदी के आगे बचे हुए नीचे के हिस्से में भगवान गणेश जी का संगमरमर का विग्रह विद्यमान है और बायें श्री श्री रामकृष्ण परमहंस की तस्वीर है |

मंदिर के उत्तर-पूर्व के कोने में माँ भाबतारिणी के तस्वीर को पूरी साज-सज्जा के साथ एक पालकी में अवस्थित किया गया है इसे माँ के शयनागार के रूप में प्रयोग किया जाता है रात में इस तस्वीर को विधिविधान के साथ सुला कर ऊपर से मच्छरदानी डाल दी जाती है मंदिर की उत्तरी दीवार पर एक खडग लटकी हुई हैकहा जाता है कि इसी खडग से पशु-बलि होती थी इस खडग को लेकर यहाँ एक कथा भी प्रचलित है |कहा जाता है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने साधना काल में माँ के दर्शन के लिए पूरे परिसर में माँ-माँ चिल्लाते विक्षिप्त भाव से घूमा करते थे वे माँ का साक्षात दर्शन पाने के लिए बेचैन थे एक दिन इसी विक्षिप्त भाव से उन्होंने यह खडग उतार कर अपनी गर्दन काट कर माँ को अर्पित करने की चेष्टा की कहा जाता है कि माँ काली तत्काल प्रकट होकर रामकृष्ण का खडग वाला हाथ पकड़ लीं और अपने दूसरे हाथ उन्होंने आशीर्वाद के मुद्रा में परमहंस के सर पर रख दिया वेदी के एक तरफ देवी की पूजा में काम आने वाली वस्तुओं को बहुत करीने से सजा कर रखा गया है यहाँ मंगला आरती के समय मक्खन और मिष्ठान का भोग लगाया जाता है प्रात: काल की आराधना में फल और बिना उबले चावल चढ़ाये जाते हैं दोपहर को माँ का विधिवत स्वादिष्ट और सुगंधित भोज्य पदार्थ परोसे जाते हैंजिसमें मछली का झोल आवश्यक माना जाता है चाँदी के एक सुन्दर कलश में जल भी रख दिया जाता है सायंकाल फिर फल और मिष्ठान का भोग लगते हैं विशेष पूजा में कभी-कभी मांस और सुगंधित पकाये गये चावल भी अर्पित किये जाते हैं माँ काली के विग्रह के सामने सिन्दुरी रंग का एक कलश फूलों से सजा कर रख दिया जाता है माँ का विग्रह 8साल की कुमारी कन्या का विग्रह है |

मंदिर परिसर में घूमते हुए मुझे इस मंदिर के विषय में बहुत सारी ऐसी जानकारियाँ मिली जिन्हें में आगे पाठकों के साथ अवश्य साँझा करना चाहती हूँ बताया गया कि हजारों साल पहले यहाँ किसी राजा को भगवान शंकर के दर्शन हुए कालांतर में उसने यहाँ शिव मंदिर स्थापित कियाजिसकी वह नियम पूर्वक उपासना तथा अराधना किया करता था गाँव का नाम दक्षिणेश्वर होने के कारण मंदिर का नाम भी दक्षिणेश्वर रख दिया गया वर्तमान मंदिर भी उसी पृष्ठभूमि पर स्थित है वर्तमान मंदिर पश्चिम बंगाल के जिला 24 परगना में स्थित है इसके अलावा यह मंदिर के निर्माण के विषय में एक कहानी और सुनने को मिली यहाँ के स्थानीय जमींदार रामचन्द्रा के स्वर्गवास के बाद उनकी विधवा रासमणि ने कई तीर्थों की यात्रा के बाद अपने मझले दामाद मथुरानाथ विस्वास से काशी विश्वनाथ के दर्शन की इच्छा प्रकट की दामाद ने उनकी यात्रा को सकुशल बनाने के लिए सारी व्यवस्था कर दीलेकिन जिस दिन यात्रा होने को थीउसके एक दिन पहले की रात को रासमणि ने एक स्वप्न देखा स्वप्न में उन्हें भगवती अन्नपूर्णा के दर्शन हुए भगवती ने रासमणि से बनारस की यात्रा स्थगित करने को कहा और कहा कि इसके स्थान पर तुम गंगा के तट पर एक मंदिर स्थापित करो तथा उस मंदिर में विधिवत मेरे विग्रह को स्थापित कर उसका पूजन-अर्चन करो भगवती के आदेश को शिरोधार्य कर रासमणि ने दक्षिणेश्वर में इस मंदिर का निर्माण कराया मंदिर का निर्माण कार्य 1847 में आरंभ हुआ और यह 1855 में पूर्ण भी हो गया इस मंदिर के निर्माण में उस समय कुल व्यय करीब 8 लाख रुपये से अधिक का हुआ था इस बीच एक घटना और घटित हुई मंदिर में जो माँ काली की मूर्ति स्थापित हैवह एक बड़े से डब्बे में तब सुरक्षित रखी हुई थी तब माँ काली ने रासमणि को स्वप्न में अपनी इस मूर्ति को शीघ्रातिशीघ्र मंदिर में स्थापित करने का आदेश दिया इस आदेश आदेश के बाद ही माँ काली की इस भव्य प्रतिमा की स्थापना संभव हुई यह स्थापना भी स्नान पर्व के शुभ अवसर पर 1855 में संपन्न हुई थी |

वर्तमान काली मंदिर के सामने एक बहुत विशाल मंडप स्थित है मंडप को नट-मंडप’ के नाम से पुकारा जाता है एक परंपरा यहाँ यह भी है कि प्रत्येक शनिवार और रविवार को यहाँ माँ काली को संग’ कहकर पुकारते हैं मंडप के ऊपर महादेवनंदी और भृंगी के विग्रह स्थापित हैं | मंडप के सामने थोड़ी दूर पर ईंटों से बना एक चबूतरा हैजो पशुबलि के लिए सुरक्षित है दुर्गा पूजापूर्णिमा तथा कुछ विशेष अवसरों पर यहाँ बकरों की बलि दी जाती है काली मंदिर से उत्तर की ओर बरामदे के पास सफेद संगमरमर से बना राधाकृष्ण का एक मंदिर है राधाकृष्ण की मूर्तियाँ तीन सीढ़ी वाली एक वेदी पर स्थापित हैं वेदी का निर्माण ग्रे कलर के पत्थरों से किया गया है भगवान कृष्ण की मूर्ति काले पत्थर से तथा राधाजी की मूर्ति अष्टधातु की है पीतांबर धारी श्रीकृष्ण की मूर्ति त्रिभंगी मुद्रा में है श्रीकृष्ण की श्यामवर्ण दोनों कलाइयों में सोने का कंगन और उँगलियों के बीच अत्यंत रमणीय सोने की बांसुरी हैजो उनके अधर-पुटों से लगी हुई है कानों में मकराकृत कुंडलललाट पर घुंघराली लटें तथा मस्तक पर सतरंगी मयूर पंख के साथ ही स्वर्ण मुकुट उनकी शोभा को अत्यंत भव्य रूप देते हैं राधाजी को शुद्ध बनारसी सिल्क की ओढ़नी और घाघरे से सुसज्जित किया गया है उनके गले में कंठहार के साथ ही अनेक किस्म के स्वर्णाभूषण है तथा दोनों बाहों में उन्होंने सोने के बाजूबंद धारण कर रखे हैं |  नाक में नथनी और मस्तक पर स्वर्ण मुकुट धारण किये हुए हैं वेदी के ठीक ऊपर गोपाल और गरुड़ की अष्टधातु से निर्मित मूर्तियाँ दो चाँदी के सिंहासनों पर विराजमान हैं एक काँसे के सिंहासन पर गोपाल की मूर्ति वेदी के दाहिनी ओर है राधाकृष्ण का एक चित्र बगल में लकड़ी के एक पलंग पर ऐसी मुद्रा में रखी हैजिससे प्रतीत होता है कि दोनों एक साथ विश्राम कर रहे हैं मंदिर में स्थापित भगवान कृष्ण के साथ एक कथा और जुड़ी हैइसका संबंध स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भी हैक्योंकि घटना उन्हीं के कार्यकाल की है घटना के विषय में बताया गया कि एक बार पुजारी की असावधानी के चलते भगवान कृष्ण की मूर्ति जमीन पर गिर गई और उसका दाहिना पाँव खण्डित हो गया | इसकी सूचना पाकर देवी रासमणि अपने दामाद मथुराबाबू के साथ भागी हुई आई | कई प्रकांड पंडितों से उन्होंने राय ली तो सभी ने एक ही बात कही कि खंडित मूर्ति की पूजाशास्त्र-विधान में नहीं है अत: इसे गंगा में प्रवाहित कर इसकी जगह नई मूर्ति स्थापित की जानी चाहिए | रासमणि देवी पंडितों से कुछ कह तो नहीं सकीलेकिन उन्हें अपने आराध्य को गंगा में प्रवाहित करने की बात जम नहीं रही थी | बड़े दुखी मन से रासमणि ने जब बात स्वामी रामकृष्ण के सामने रखी तो उन्होंने प्रतिप्रश्न किया कि अगर आपके दामाद का पाँव किसी दुर्घटना से टूट जाएगा तो क्या उन्हें भी गंगा में प्रवाहित कर दिया जाएगा ? कहा जाता है कि रामकृष्ण ने मूर्ति के टूटे हुए पाँव को किसी लेप से इस तरह जोड़ दिया कि उसके खंडित होने का आभास ही नहीं होता | कहते हैं कि उनके निधन के बाद राधाजी के मूर्ति के दाहिनी ओर एक नई कृष्ण की मूर्ति स्थापित कर दी गई | उस समय से आज तक अकेले कृष्ण की मूर्ति और जोड़े की राधाकृष्ण की मूर्तिदोनों मूर्तियों की पूजा-अर्चना विधिवत होती रहती है |

राधाकृष्ण की वेदी के उत्तर दिशा की ओर एक पीठिका, दो चाँदी के गिलास और एक जल युक्त कलश रखा गया मिला | मंगला आरती के समय यहाँ भी मक्खन मिष्ठान का प्रसाद चढ़ता है | मध्याह्न भोजन में भी गोरस निर्मित बहुत सारे स्वादिष्ट व्यंजन भगवान को परोसे जाते हैं | शाकाहार बनाते समय शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है | माँ काली क्र लिए मांसाहारी भोजन अलग कमरे में बनता है और राधाकृष्ण के लिए शाकाहारी अलग कमरे में | पकाने के बर्तन भी अलग-अलग होते हैं | मंदिर के दक्षिणी हिस्से में जो कमरे बने हैं, वहाँ प्रबंधकों तथा ट्रस्टियों के ऑफिस तथा विश्राम कक्ष हैं | मंदिर की पूर्व दिशा में शुद्ध निर्मल जल से युक्त एक विशाल पुष्करणी भी है | वैसे दक्षिणेश्वर काली मंदिर के परिसर में कई मंदिर और मठ हैं | काली मंदिर के उत्तर-पश्चिम कोण पर जोगोड़ा मठहै | इस मठ की स्थापना स्वामी जोगोड़ा नंदा ने की थी | काली मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के एक ओर स्वामी रामकृष्ण परमहंस का शयन कक्ष है | इस कक्ष में तीस वर्षों तक उनका निवास हुआ था | परमहंस ने अपने बड़े भाई रामकुमार चटर्जी के देहावसान के बाद काली मंदिर के मुख्य पुजारी का पदभार ग्रहण किया था | जब रामकृष्ण स्वयं माँ काली के ध्यान में अपनी सारी सुधबुध, विसार कर लीन रहने लगे तो इस पद पर उनके मझले भाई रामेश्वर चटर्जी के बेटे रामलाल चटर्जी आसीन हो गये | परमहंस के शयन कक्ष के दक्षिण-पश्चिम कोने में लकड़ी की दो चारपाइयाँ और साफ-सुथरा बिस्तर सुरक्षित हैं, इसका उपयोग अपने जीवन काल में किया करते थे | वार्तालाप करते और दिया करते थे | उनके एक शिष्य और भक्त लोतो महाराज ने उन्हें एक तकिया दिया था, वह अभी तक सुरक्षित है | छोटी चारपायी पर एक मसंड और दो रजाइयाँ भी हैं, जब कि बड़ी चारपायी पर एक सिरहाना, एक तरण तकिया, दो रजाइयाँ और एक गद्दा है | बड़ी चारपाई पर ही वह सोते और विश्राम किया करते थे | कमरे के उत्तर-पूर्व कोने में लकड़ी के एक चौरस डिब्बे में चादरें, तौलिये और मच्छरदानियाँ, जिनका उपयोग वे किया करते थे सुरक्षित रखी गई हैं | उनके शरीर त्याग के बाद स्वामी विवेकानंद के कहने पर उनकी एक बड़ी तस्वीर बड़ी चारपाई पर रख दी गई है | उनके समय की एक गणेश मूर्ति चारपाई के दाहिने सिरहाने के पीछे पश्चिम दीवार की ओर है और संगमरमर की एक बुद्ध प्रतिमा दक्षिण की ओर है | रामकृष्ण परमहंस के शयनकक्ष के पीछे उत्तर-पश्चिम कोने के पास पानी का एक बड़ा कुंड भी है | बताया गया कि माता फलहारिणी की पूजा पहले जहाँ कुंड था, वहाँ होती थी | परमहंस जी माता शारदा (आद्या देवी) की पूजा किया करते थे | आद्या माता की स्थापना आद्यापीठ के रूप में परमहंस जी ने ही की थी | भगवान शिव की छाती पर आसीन अष्टधातु से निर्मित माता आदि शक्ति की मूर्ति बहुत सुन्दर और मनभावनी है |

परमहंस के शयनकक्ष के पश्चिम-उत्तर और पूर्व की दीवारों पर उनके जीवन काल से ही कुछ चित्र शोभायमान हैं, जो आज भी दर्शनार्थियों के लिए यथावत तथा यथास्थान सुरक्षित रखें गये हैं | इनमें ध्रुव, गायत्री, प्रहलाद, हरिनाम, गौरांग देव के संकीर्तन स्वरूप, राधाकृष्ण, राम-सीता-लक्ष्मण, सिंह वाहिनी दुर्गा, आद्या माँ (शोराशी) और छ: हाथ वाले गोरांग देव की एक प्रतिमा | एक चित्र ऐसा भी है जिसमें जीसस क्राइस्ट समुद्र में डूबते पीटर को पूरी ताकत से बाहर खींच रहे हैं | यह चित्र शयनकक्ष की दक्षिणी दीवार पर है | शयनकक्ष की दक्षिणी कोने में अलमारी है, जिसमें रामायण की एक प्रति सुरक्षित रखी गई है | इसी अलमारी में परमहंस द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले वस्त्र तथा बर्तन भी हैं | खूबी यह है कि छोटे बर्तनों में परमहंस जी के बाल और नाख़ून भी संग्रहित किया गया है | मुझे इन सारी बातों की जानकारी मंदिर के मुख्य पुजारी रामलाल चटर्जी के नवासे जो काली मंदिर में हैं ने दी | इस शयनकक्ष में मुझे बहुत सारी अनुभूतियों की सुगंध बिखरी हुई मिली और इस सुगंध में उनके प्रमुख शिष्यों, जिनमें स्वामी विवेकानंद की भी सुगंध शामिल थी | दक्षिणेश्वर काली मंदिर के दर्शनार्थियों के लिए इस शयनकक्ष का अवलोकन भी भक्ति और श्रद्धा के समागम से कम नहीं है | परमहंस की स्मृतियों के दर्पण में इसे एक महान तीर्थ की गरिमा से अलग नहीं समझा जा सकता है | मैंने इस कक्ष में कई लोगों को ध्यान मग्न अवस्था में देख | इस कमरे के पश्चिमी दिशा में एक गोलाकार बरामदा है | मुझे बताया गया कि इसी बरामदे में एकांत भाव में बैठे परमहंस सामने बहती भागीरथी को अपलक निहारा करते थे | बरामदे के उत्तरी किनारे पर वे धूम्रपान करते तथा बरामदे की पूर्वी दीवार से सटे हिस्से में बैठकर लोगों के साथ रामायण पर चर्चा किया करते थे | यहाँ मैंने एक विचित्र बात यह देखी कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस जिन्हें उनके भक्त यहाँ ठाकुरकहकर संबोधित करते हैं को प्रतीक रूप में जीवित रखा गया है | मतलब यह है कि उनके जीवन काल में उनकी जो दिनचर्या थी, उस दिनचर्या को प्रतीक रूप में अभी भी चलाया जा रहा है | प्रतिदिन प्रात:काल उन्हें उनकी शैय्या से जगाया जाता है और उन्हें स्नान इत्यादि कराने के बाद सुगंधित और स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों का नैवेध्य अर्पित किया जाता है | इतना ही दिन में  10 बजे उन्हें तंबाकू भी पेश की जाती है | कहा जाता है कि ठाकुरधूम्रपान में काफी रूचि रखते थे | मतलब यह है कि उन्हें देवत्त्व से विभूषित कर वे सारे कार्यक्रम संपन्न किये जाते हैं, जो उनके जीवनकाल में उनके साथ जुड़े थे | उन्हें शैय्या पर सुलाने का कार्यक्रम तो होता ही है, जाड़े के दिनों में बाकायदा उन्हें रजाई भी ओढ़ाई जाती है | पूजा की सारी जिम्मेदारी ठाकुरके परिवार से संबंधित लोग ही निभाते हैं |

बरामदे की ओर से कुछ लोगों के साथ जब मैं बाहर निकल रही थी तो एक दीवार कोयले से बंगला में लिखी एक इबारत मैंने देखी | यहाँ मैं ठिठक गई | मैंने जानना चाहा कि यहाँ क्या लिखा गया है | एक व्यक्ति ने अनुवाद कर बताया कि आज से मैं इस शिक्षा के बाद आत्मा से ठाकुर का सेवक बन गया |’ मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसा लिखने का आशय क्या हो सकता है और यह लिखा किसने होगा ? मेरी जिज्ञासा का शमन करते हुए उसी व्यक्ति ने बताया कि यह ठाकुर के एक शिष्य श्री श्री रामचंद्र ब्रह्मचारी की लिखावट है और लेखन भी तब का है जब ठाकुर सशरीर उपस्थित थे | इस लिखावट के संदर्भ में एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया गया कि एक दिन ठाकुर के शिष्य श्री श्री रामचंद्र ब्रह्मचारी ने शिवोहम्-शिवोहम्का उच्चारण किया | परमहंस ने इस उच्चारण के साथ ही अपने शिष्य को टोकते हुए कहा कि मात्र मंत्र का उच्चारण करने से कोई शिव नहीं हो जाएगा | शिष्य के प्रतिप्रश्न कि फिर कैसे होगा, के उत्तर में रामकृष्ण ने कहा कि आलम बाजार में अमुक स्थान पर एक दूकान है | अगर तुम वहाँ जाकर इसका उच्चारण करोगे तो मस्ती तथा आनंद से सराबोर हो जाओगे | परमहंस ने यह भी कहा कि सच्ची भक्ति से ही शिवत्व को धारण किया जा सकता है | पहले तो ब्रह्मचारी को गुरु के कथन पर पूरी तरह विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब उन्होंने उनके बताये हुए प्रयोग को आजमाया | इसके बाद वे प्राणपक्षा से इस कदर अभिभूत हुए कि वे रामकृष्ण के पादपदमों में पूरी तरह समर्पित हो गये | बताया गया कि यह लिखावट उनके उसी समर्पण की उद्घोषणा है |

सारा संसार जानता है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस वास्तविक अर्थों में एक संत थे और अध्यात्म के नाम पर किये जाने वाले ढोंग तथा पाखंड के सख्त विरोधी थे | लेकिन ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है जो उनके न चाहते हुए भी घटित हो जाती थीं, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है | ऐसी ही एक घटना का उल्लेख वहाँ मुझे सुनाने को मिला | रासमणि देवी के दामाद मथुरा बाबू यद्यपि रामकृष्ण को बहुत आदर सम्मान देते थे, किन्तु उनके संताप के प्रति उनके मन में एक हलका सा संदेह भी बना हुआ था | एक दिन की बात है कि मथुरा बाबू अपने आवास के बरामदे में बैठकर मंदिर संबंधित कुछ फाइलों का अवलोकन कर रहे थे | उन्होंने दृष्टि उठाई तो उन्हें एकाएक लगा कि परमहंस चले आ रहे हैं, लेकिन अकस्मात वे आश्चर्य चकित तथा भौंचके रहे गये, जब उन्होंने परमहंस की जगह माँ भाबतारिणी और उनके पीछे महादेव को आते देखा | कुछ देर तक वे दृष्टि भ्रम मानते रहे और इसी क्रम में उन्होंने अपनी आँखों को मलते हुए उस तरफ दुबारा देखा | हैरत की बात यह कि वही दृश्य उन्हें बार-बार और हरबार दिखायी देने लगा | उन्हें अपनी भूल का आभास हो गया | वे पता नहीं किस आवेग में बाहर और ध्यानमग्न ठाकुर के चरणों में गिर पड़े | मथुरा बाबू ने रो-रो कर अपने आँसुओं से उनके चरण भिगो दिया | बहुत देर तक ठाकुर अपने ध्यान में ही लीन रहे | सचेत हुए तो उन्होंने मथुरा बाबू को इस विहल अवस्था में देखकर आश्चर्य चकित रह गये | उन्होंने पूछा भी कि यह आप क्या कर रहे हैं ? मथुरा बाबू ने अपने साथ बीती बात को ठाकुर के सामने उद्घाटित कर दिया | उनकी बात सुनकर ठाकुर हँसने लगें और ऐसा प्रकट किया कि वे स्वयं इस बात से अनजान हैं | इस घटना के बाद मथुरा बाबू का ऐसा रूपांतरण हो गया कि वे ठाकुर के रूप में परमात्मा के दर्शन करने लगे |

ठाकुर के इस शयनगृह के उत्तर में नहावत नाम का एक बड़ा कक्ष है | इस कक्ष को श्री श्री शारदा मठभी कहा जाता है | इस कक्ष की स्थापना स्वयं स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की पत्नी की स्मृति में कराया था | इस कक्ष में सिर्फ रामकृष्ण मिशन से संबंधी संन्यासिनियों और  ब्रह्मचारिनियों का निवास स्थान है | इस कक्ष में माँ शारदा ने अपने जीवन के तेरह बहुमूल्य वर्ष बिताये थे | इसी कक्ष में वे परमहंस के लिए अपने हाथों से भोजन तैयार करती थीं | स्वामी विवेकानंद पर मात्र परमहंस की ही कृपा नहीं थी, माँ शारदा भी उन्हें पुत्रवत प्यार करती थीं | नवाहत खाना की दक्षिण की ओर नदी के तट पर एक बहुत सुन्दर बगीचा है | शिवमंदिरों के बरामदों से इस बगीचे की झांकी बहुत मनोरम दिखाई देती है | बगीचे के इसी क्रम में पीस कॉटेज के सामने की ओर पंचवटी है | इस पंचवटी को परमहंस जी ने अपने हाथों से सजाया था | पंचवटी के मध्य में ईंटों से बना एक रास्ता है और लोहे के तारों की एक जाली से इस पंचवटी को घेरा गया है | कहा जाता है कि एक दिन रामकृष्ण ने अपने भतीजे ह्रदयराम से अपनी इच्छा व्यक्त की थी कि वे पंचवटी को अपनी साधनास्थली बनाना चाहते हैं | उनकी इच्छा को सम्मान देते हुए हृदयराम ने हंस पुकुर से मिट्टी मंगाकर मध्य में एक समतल स्थान तैयार करवा दिया | इतना ही नहीं समतल करायी गई भूमि पर पीपल, बरगद, आंवला, बेल, अशोक आदि के वृक्षों की पौध लगवा दी | समतल भूमि के चारों तरफ तुलसी के पौधे भी उगा दिये गये | धीरे-धीरे यह पौधे इतने बड़े हो गये कि बीच में साधनारत परमहंस की उपस्थिति बाहर से देख् पानी कठिन हो गई | कालांतर में स्वयं रामकृष्ण ने वृन्दावन से बहुत सारे पौधे मंगाकर यहाँ लगाये और इस स्थान को वे वृन्दावन कहकर पुकारने लगे | यहाँ एक चबूतरा है, जिसकी नींव में पाँच नरमुंड दबाये गये हैं | कहा जाता है कि यहाँ बैठकर परमहंस एक भैरवी संन्यासिनी के निर्देशन में तंत्र साधना करते थे |

पंचवटी बगीचे के सामने पीस कॉटेजनाम से एक साफ-सुथरा सुव्यवस्थित कक्ष है | इसका इतिहास यह है कि स्वामी तोतापुरी जी महाराज से अद्वैत साधना की दीक्षा लेने के बाद परमहंस इसी कक्ष में लगातार तीन दिनों तक पूर्ण रूप से समाधि में लीन रहे | गंगा से प्राप्त हुई शंकर भगवान की एक मूर्ति ठाकुर के हाथों खण्डित हो गई थी | तब ठाकुर ने उस टूटी मूर्ति का मस्तक इसी कक्ष में स्थापित कर दिया था | आज भी यहाँ खण्डित मूर्ति की पूजा विधिविधान से यहाँ होती है | गौर तलब यह है कि दक्षिणेश्वर के प्रत्येक मंदिर में पुजारी रामकृष्ण के ही परिवार के लोग हैं | बताया जाता है कि अपने जीवन काल में उन्होंने ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी | दक्षिणेश्वर मंदिर और उसके आस-पास मैंने बड़े श्रद्धा भाव से प्रत्येक दर्शनीय स्थल का अवलोकन किया | घूमते घामते मैं बहुत थक गई थी कि इसी बीच वर्षा भी शुरू हो गई और ऐसी बरसात कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी | किसी तरह एक टैक्सी मिली | मार्ग के एक तरफ होने के कारण बेली ब्रिज, जिसे विवेकानंद सेतु का नाम दे दिया गया से होकर जाना पड़ा | यह बेली ब्रिज मंदिर के घाट से भी दिखाई देता है | एक बार इसके पहले भी मैं इस सेतु से तब गुजरी थी जब हम सालदा रेलवे स्टेशन से दार्जिलिंग घूमने के लिए न्युजलपायी गुड़ी होकर जा रहे थे | यह सेतु दक्षिणेश्वर से कोलकाता को और हावड़ा दोनों को जोड़ता है | इस सेतु का इस्तेमाल सड़क और रेलमार्ग दोनों के लिए होता है | मै दक्षिणेश्वर घूमने के बाद बेलुर मठ गई, क्योंकि अब तक बरसात भी थम गई थी

संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
   मीडिया प्रभारी
अध्यक्षा (इण्डिया काइण्डनेस मूवमेंट)
हैदराबाद (आ.प्र.)
मो.नं.: 09441511238



Wednesday, 21 August 2013

हावड़ा ब्रिज-(कोलकाता)


हावड़ा ब्रिज-(कोलकाता)

कोलकाता पश्चिम बंगाल राज्य की राजधानी है | मुंबई को इस देश का व्यापारिक महानगर मान जायेगा, तो उसी के समानांतर कोलकाता को देश का औद्योगिक महानगर स्वीकार करने में किसी को कोई हिचक नहीं होगी | कई सदियों पहले इस महानगर को ईस्ट इण्डिया कंपनी के अंग्रेजों ने पूर्वी एशिया से व्यापार करने के लिए विकसित किया था | विकास के इसी क्रम में यह महानगर देश के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में भी विकसित होता गया | परिणाम स्वरूप यहाँ के मूल वाशिन्दों बंगालियों के अलावा भी देश के अन्य प्रांतों के लिए भी अपनी रोजी-रोटी के तलाश में आकर बसते गये | आज कोलकाता अपने दामन में न सिर्फ स्थानीय बंगाली संस्कृति को ही समेटे हुए है अपितु वह देश की लगभग सभी संस्कृतियों की झाँकी प्रस्तुत करता है | मुंबई की तरह यह भले ही समुद्र के किनारे न बसा हो लेकिन देश की पवित्रतम नदी गंगा जो यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हुगली और भागीरथी का नाम धारण कर लेती है, मनोरम और सुन्दर दिखाई देती है |

ब्रिटिश काल का बसाया गया यह नगर अपनी स्थापना और स्थापत्य में अभूतपूर्व है | इस काल में यहाँ सुन्दर महलों और उपासना गृहों के अलावा अनेक भव्य तथा आकर्षक पार्कों का भी निर्माण किया गया था | सुविस्तारित मैदान तो यहाँ है ही, विक्टोरिया टर्मिनल के अलावा इडेन गार्डेन भी है, जिसे देखकर स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होती है | कोलकाता का क्षेत्रफल 88.752 वर्ग किलोमीटर है | इसके कोलकाता नामकरण के विषय में लोगों की अलग-अलग राय है लेकिन यह सही नहीं मानते हैं कि इसकी ऐतिहासिकता का बहुत संक्षिप्त काल भी देश के इतिहास को एक नये आयाम पर खड़ा करता है | इसकी पौराणिकता की गवाही देने के लिए काली घाट में स्थित माँ काली का अति प्राचीन मंदिर ही पर्याप्त है, जिसकी गणना देश के 51 शक्ति पीठों में की जाती है | विश्वविश्रुत संत स्वामी विवेकनन्द और उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस का नाम भी कोलकाता से जुडता है | अलावा इसके विश्व कवि रविन्द्रनाथ टैगोर और उनके द्वारा स्थापित शान्ति निकेतन भी इस नगर को विश्व पटल पर महिमावान बनाने के लिए पर्याप्त है | स्वतंत्रता की अलख जगाने में इस धरती के क्रांतिकारी वीरों ने जिस इतिहास की रचना की है, उस आने वाली कई सदियों तक यह देश गर्व करता रहेगा | आजाद हिन्द फौज के संस्थापक नेता जी सुभाषचंद बोस और प्रमुख क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के भी तार यहीं से जुड़े हैं | भारत रत्न से सम्मानित सत्यजीत राय के अलावा विश्व के प्रमुख अर्थशास्त्री के. अमर्त्य सेन की धरती भी कोलकाता ही है | कहने का मतलब यह कि कला, साहित्य, दर्शन औरविज्ञान के साथ ही इस नगर ने प्रमुख राजनीतिज्ञों तथा समाज सुधारकों को भी जन्म दिया है | अत: कोलकाता महानगर की महिमा तथा गौरवगाथा को किसी एक पक्ष तक सीमित नहीं किया जा सकता, इसका विकास इसके स्थापना काल से बहुमुखी और सर्वांगीण रहा है |

कोलकाता की एक सच्चाई यह भी है कि इसको नये कलेवर में गढ़ने का काम भले ही अंग्रेजों ने किया है, लेकिन इसको सजाने-संवारने में बंगला भाषियों के बाद अगर किसी एक समाज का योगदान सर्वाधिक हो, तो वह समाज यहाँ का मारवाड़ी समाज है | राजस्थान से आकर बसने वाले मारवाड़ी समाज ने न सिर्फ अपने को इस धरती की सस्कृति में ढाल लिया है अपितु अपनी पहचान को भी बनाये रखा है | इस समाज की उपस्थिति और कोलकाता महानगर में उनका योगदान तब से है जब से अंग्रेजों ने इस महानगर को एक प्रमुख महानगर के रूप में गढ़ना शुरू किया था | इस नगर के उद्योग-व्यापार पर आज मारवाड़ी समाज पूरी तरह हावी है | इसके अलावा यहाँ की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी इस समाज का प्रभाव सर्वाधिक है | पूरे देश और दुनिया में दूर-दूर तक फैले मारवाड़ी समाज का लगाव इस महानगर से लगातार बना हुआ है | इस समाज का व्यक्ति अगर एक ओर अपने पूर्वजों की जन्मस्थली राजस्थान जाने को वरीयता देता है, तो दूसरी ओर वह कोलकाता भी इस कारण जाना चाहता है, क्योंकि उसके अनगिनत संबंधी इस नगर में रहते हैं |

कोलकाता सदैव से मेरे आकर्षण का केन्द्र रहा है और मैं कई बार यहाँ आई गई हूँ, लेकिन सही अर्थों में मेरे घुमक्कड़ और यायावर मन ने कभी इस नगर की आत्मा के अंतराल में झाँक कर नहीं देखा | कहने को तो यहाँ की धर्मशालायें और होटेल हमेशा मुझे लुभाते रहे हैं और मैं किसी रिश्तेदार के यहाँ रुकने की अपेक्षा हमेशा इनको ही वरीयता देती रही हूँ | कोलकाता की बीच सड़कों पर चलने वाली ट्राम गाड़ियों ने मुझे हमेशा ललचाया है और मैं किसी टैक्सी के बजाय ट्राम से यात्रा करने में बहुत आनंदित होती रही हूँ | यूँ कि फुटकर-फुटकर मैंने इस नगर में बहुत कुछ देखा,लेकिन वह देखना किसी पर्यटक का देखना कभी नहीं रहा ऐसा सुयोग मुझे सन् 2005 की जुलाई में प्राप्त हुआ | मेरे देवर अशोक मुरारका के बेटे विजय का विवाह कोलकाता में 15 जुलाई को निश्चित हुआ था | इस यात्रा का एक आकर्षण यह भी था कि अलग-अलग शहरों से बहुत से रिश्तेदारों से एक साथ मुलाक़ात संभव हो जाएगी | दूसरा आकर्षण यह था कि अगर कुछ अतिरिक्त समय मिला तो मैं इस शहर अथवा उसके आस पास  के दर्शनीय ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों का अवलोकन अवश्य करुँगी |

इस क्रम में हैदराबाद से मैं तेरह जुलाई को कोलकाता पहुँची | वहाँ हावड़ा रेलवे स्टेशन के पास सोहनदीप महिला मंडल में हम सभी के ठहरने की व्यवस्था की गई थी | हमारा आवास हावड़ा ब्रिज के बगल में था | ब्रिटिश कालीन यह स्थापत्य अपने आप में बेजोड़ है और इंजिनियरिंग का एक ऐसा आदर्श नमूना है जिसे देखकर आज भी लोग हैरत से खड़े रह जाते हैं | कोलकाता शहर इसी ब्रिज के माध्यम से हावड़ा रेलवे स्टेशन से जुडता है | यहाँ भागीरथी का पाट बहुत चौड़ा है और पूरा का पूरा ब्रिज दोनों तरफ से सिर्फ दो-दो खम्भों पर टिका हुआ है | यह संभवत: दुनिया का एक मात्र ब्रिज है जिस पर रात-दिन अनवर आवागमन चालू रहता है | एक साथ कई-कई हजार लोग इस ब्रिज से हो कर आते-जाते देखे जा सकते हैं और बस, ट्राम, टैक्सी तथा अन्य दो पहिया और चार पहिया वाहन लगातार आर-पार होते रहते हैं | हैरत इस बात पर होती है कि सिर्फ दो-दो खम्भों पर टिका यह ब्रिज किस तरह इतना भार ढो पाने में सक्षम होता है | हाँ, इतना अवश्य है कि चलने वालों को इसका मजा किसे झूले जैसा अवश्य महसूस होता है |

बताया जाता है कि इसका निर्माण सन् 1914 में अंग्रेज सरकार ने कराया था | आजादी के बाद हालाँकि इस ब्रिज का निर्माण प्रांतीय सरकार ने विश्वकवि रविन्द्र नाथ टैगोर के नाम पर रविन्द्र सेतु कर दिया, लेकिन इने-गिने लोग ही इसे इस नाम से पुकारते हैं | आम जन आज भी इसे हावड़ा ब्रिज कहकर ही पुकारते हैं | इसकी लंबाई 1500 फिट है और चौड़ाई 71 है और यह दोनों तरफ सिर्फ 4 खम्भों पर टिका है | इसके बारे में एक आश्चर्य जनक बात लोगों ने यह बताई कि गर्मी के दिनों में यह पुल 4 फिट बढ़ जाता है और पुन: रात में यह अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ जाता है | सही अर्थो में यह पुल आधुनिक विज्ञान का एक विस्मयकारी चमत्कार है | मैं लगभग पूरी शाम इस पुल का अवलोकन करती रही | इस पुल से गुजरते हुए मानव-समुद्र और शोर मचाते वाहनों का अवलोकन करना जितना सुखद समझ में आ रहा था, उतना ही सुखद पुल के नीचे शांत भाव से बहती भागीरथी का अवलोकन करना भी लगता था | वहाँ भी आते-जाते स्टीमर और भागीरथी पर तैरती नौकाओं को अपलक निहारते रहना, खासकर उस समय जब सूर्य भगवान अस्ताचलगामी हों और उनका लाल बिम्ब भागीरथी की धारा में अपनी लालिमा के साथ अठखेलियाँ कर रहा हो, सचमुच मन के लिए एक विस्मयकारी तथा सुखद अनुभूति थी | धीरे-धीरे वातावरण में धुंधलका छाने लगा और दूर-दूर तक बिजली-बत्तियों का प्रकाश आलोकित होने लगा तो मुझे वापस आवास पर लौट चलने का आभास हुआ | इस आभास के साथ ही में अपने आस-पास को निहारती लौट आई | वह रात नाते-रिश्तेदारों से कुशल-क्षेम पूछते बीत गई |
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद