Thursday 18 July 2013

ओशो-धारा में अवगाहन
संपत देवी मुरारका
सन् 2004 की उमस भरी गर्मी झेल पाना मेरे लिए काफी मुश्किल हो रही थीबावजूद इसके मन बहुत-बहुत उदास और बैचेन था कर्म समझकर घर-गृहस्थी के सारे काम मैं निपटाये जरुर जा रही थीलेकिन बे मन से कोशिश करने के बावजूद मैं न मैं अपने मन की बैचेनी को शांत कर पा रही थी और न ही उसे समझा पा रही थी एक विचित्र किस्म की नाकामी की पीड़ा रह-रह कर कब उभर जाती और मेरी जिन्दगी अव्यवस्थित हो जाती इस पीड़ा की एक वजह थी अप्रेल के महीने में मैं और मेरा बेटा राजेश अमेरिका की यात्रा के लिए वीजा बनवाने मद्रास गये थे बहुत सारी कोशिशों के बावजूद हम वीजा हासिल करने में कामयाब नहीं हो सके इस साल की गर्मी में विदेश-यात्रा का लुत्फ उठाने का हमारा पूरा-पूरा मन था और इस यात्रा को संभव मानकर हमने इसकी पूरी-पूरी तैयारी भी कर ली थी अत: वीजा न मिलने की वजह से पैदा होने वाली निराशा का दुःख स्वाभाविक था मेरी जैसी महिला जिसने अपने जीवन को पर्यटन का पर्याय बना लिया है जो इसकी खुशियों पर जिन्दगी की सारी खुशियाँ कुर्बान करने को हर पल तत्पर होके लिए इस तरह का दुःख झेल पाना सचमुच कठिन था अत: इसे स्वाभाविक ही समझना चाहिए |

कभी-कभी मुझे अपने आप पर हैरत भी होती और झुंझलाहट भी मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर मैंने यह कौन सा रोग पाल लिया है मेरी उम्र 60 के ऊपर जा रही है इस बीच में अपनी सबसे अमूल्य निधिअपने सबसे प्रेमास्पद पति को खो चुकी हूँ मेरी शारीरिक उर्जा भी दिन पर दिन छीजती जा रही है ऐसी अवस्था में पर्यटन की कष्टप्रद यात्राओं का बोझ ढो पाना मेरे लिए कितना कष्ट कारक है और दुर्गम स्थलों की थका देने वाली यात्रायें क्या मेरे शारीर के पोर-पोर को तोड़ देने वाली साबित नहीं होगी इतना सब समझते-बूझते भी न जाने मैं किस उन्माद के वशीभूत सिर्फ पर्यटन की ही मानसिक तस्वीरें बनाने में जुटी रहती मुझे दुःख भी होता और संताप भी कि पति के बाद मुझे अपनी गृहस्थी के मसले सुलझाने में अपने छोटे से परिवार का सहयोगी बनना चाहिएकहाँ मैं अपने ही एक अज्ञात सुख की लालसा में अपने को लगातार भटकाये जा रही हूँ गनीमत इस बात की थी कि मेरा छोटा सा परिवार मुझे इस बाबत कभी टोकने अथवा अपना किसी तरह का असहयोग दर्शाने की चेष्टा नहीं करता बल्कि इसके विपरीत वे मुझे उत्प्रेरित ही करते और अगर संभव हुआ तो मेरी यात्राओं में सहभागी भी बनने को तैयार रहते इस तरह अनंत जानी-अनजानी यात्रायें मेरी नियति की झोली में संग्रहित हो गई थीं और मैं इस थाती को सहेजती अपनी दुनिया में मग्न-भाव से निरंतर आगे बढाते चली जा रही थी क्या मनुष्य का जीवन इन्हीं अनगिनत यात्रा पथों की दुरूह सच्चाइयों का आत्म बोध नहीं है ?

यह आत्म बोध ही मेरी जीवन विन्यास का यथार्थ था और मैं इस यथार्थ से जुड़े दुःख-सुख तथा सुगम-दुर्गम को भागते समय के साथ अपने अनुभवों में समेटती आगे बढ़ती जा रही थी मुझे आगे बढ़ते जाना जरुरी भी था इस क्रम में मैं अपने उत्तरोत्तर बढ़ते वयस तथा निरंतर छीजती जा रही शारीरिक क्षमताओं को भी उपेक्षित करती जा रही थी मेरे मन का सारा सुख और आनंद मेरी पर्यटन संबंधी यात्राओं की टेढ़ी-मेढ़ी दुरुहता के गुंजलक में आबद्ध अपने को धन्य समझता था |  इसका एक सबसे बड़ा यथार्थ यह भी है कि इस सुख को पाने के लिए मैं हर तरह की विघ्न-बाधाओं तथा कष्टों को पूरे मन से वरण करती थी इधर कई वर्षों से मेरी आदत यह भी हो गई थी कि मैं समूह में पर्यटन करने की आदी हो गई थी मेरे पति जब तक थे तब तक मैं उनके और अपने बच्चों तथा पारिवारिक संबंधियों के साथ इस तरह की यात्राओं को संयोजित करती थी अब उनके न होने के बाद मैं अपने इष्ट-मित्रों तथा जान पहचान के लोगों के साथ भी कार्यक्रम बनाने में जुट जाती इस बीच मैंने देश-विदेश की कई ऐसी यात्रायें भी संपन्न कीजिनके विज्ञापन प्रकाशित हुए थे और उसमें सभी अपरिचित लोग मेरे यात्रा-पथ के साथी बने थे कहने का मतलब यह है कि अपनी जीवन-यात्रा का शेष भाग भी मैं अपनी इन्हीं कल्पनाओं के रंग से रंगते हुए पूरा करना चाहती थी कभी-कभी मेरी चाहत के रास्ते में जब कोई दुर्निवार बाधा खड़ी हो जाती थीतब मन उदास भी हो जाता था और व्यथित भी |

निराशा के इस भँवर-जाल में डूबते-उतराते मेरे लिए समय व्यतीत कर पाना काफी कठिन सिद्ध हो रहा था इस गरज से समय व्यतीत करने के लिए मैं कई पर्यटन संबंधी तथा धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों के जरिये मन बहलाने की कोशिश करतीलेकिन मन था कि भाग-भाग कर अपनी काल्पनिक दुनिया की सैर करने चला ही जाता बार-बार इच्छा होती कि अधिक नहीं तो एक-दो दिन के लिए ही सही कहीं घूम फिर आती इस बीच 20 मई को मुझे यह सूचना मिली कि आपकी यूरोप यात्रा का वीजा मिल गया है इस सूचना से मैं विभोर हो उठी और तत्काल इस बारे में मैंने कर्नाटक की यात्रा पर गये अपने पुत्र और पुत्रियों को सूचित किया वे भी काफी प्रफुल्लित हुए,  क्योंकि इस यात्रा में वे भी मेरे सहभागी थे इस खुशी के साथ एक दुःख यह भी जुड़ा था कि इस यात्रा में अभी काफी इंतज़ार था और यह यात्रा जाड़े के मौसम में शुरू होने वाली थी अत: मेरे मन की बैचेनी कुछ कम होने की जगहसमाप्त तो बिल्कुल ही नहीं हुई थी बार-बार मन कर रहा था कि संक्षिप्त ही सहीअगर कोई यात्रा मेरे हिस्से में आ जाती तो उसे मैं एक सुखद संयोग मानती |

इसी क्रम में मैं कुछ लोगों को फोन कर पूछने लगी कि कहीं किसी यात्रा का प्रोग्राम होतो मुझे भी बतायें हर तरफ से उत्तर मुझे नकारात्मक ही मिलता मैंने अपनी एक दूर की रिश्तेदार महिला कमलेश जी को फोन कर कहा कि कहीं का प्रोग्राम हो तो मुझको भी साथ ले लीजिएगा उत्तर तो उनकी ओर से भी मुझे नकारात्मक ही मिलालेकिन आशा की एक किरण इस रूप में झलकी कि उन्होंने पता कर इस बारे में बताने को कहा दो दिन बाद उनका फोन आया कि पूना के पास लोनावाला में एक ध्यान-शिविर का आयोजन होने वाला हैउसमे शामिल होने के लिए अग्रिम टिकट बुक करानी होगी हालांकि मैं अब तक इस तरह के किसी कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हुई थी और मुझे इस तरह के कार्यक्रमों में होने वाली गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थीसाथ ही यह भी पता नहीं था कि कार्यक्रम किस संस्था के द्वारा आयोजित है कमलेश जी से इस कार्यक्रम में शामिल होने की हामी भर दी ऐसा मेरे अति उत्साह के कारण हुआ कमलेश जी ने शिविर में अग्रिम टिकट की व्यवस्था करा लेने के बाद मुझे बताया कि ध्यान-शिविर का आयोजन ओशो फाउन्डेशन की ओर से किया जा रहा है शिविर 18 दिनों तक लगातार चलेगालेकिन अगर कोई एकतीननौ दिन भी इसमें शामिल होना चाहता है तो उसको भी स्वीकार किया जाएगा मैंने कमलेश जी से तीन दिन के लिए ही कहा कारण यह था कि मेरे पास इस विधा का कोई अनुभव भी नहीं था अलावा इसके पता नहीं क्यों ओशो को लेकर प्रचारित और प्रचलित धारणाओं से भी मन में कुछ-कुछ हिचक हो रही थी |

ओशो को देह-त्याग किये कई वर्ष गुजर चुके थे जनवरी 19-1-1990 में उनका तिरोधान हुआ था,   लेकिन अपने जीवन-काल में समाज का एक विशिष्ट समुदाय और कतिपय नैतिकतावादी लोग उन्हें सेक्स-गुरु’ के नाम से ही अभिहित करता था कहा जाता था कि उनके ध्यान-शिविरों में नंगा नाच होता है और वे अपने अनुयाइयों को सेक्स’ के नाम पर खुली छूट देते थे इस तरह की सुनी-सुनाई धारणायें मेरे मन में अभी भी बनी हुई थीं अतएव एक मन यह भी होता था कि कमलेश जी को फोन कर इस कार्यक्रम से अपने को विरत कर लूँ बावजूद इसके मन इन सुनी-सुनाई बातों को अक्षरश: स्वीकार कर लेने के पक्ष में भी नहीं था मैंने बीच का रास्ता निकालते हुए एक बार ओशो-साहित्य का अवलोकन करने का मन बनाया मन में उत्सुकता थी कि उनका विपुल साहित्य है अथवा उसमें कुछ ओर भी है इस आशय से ओशो की कुछ पुस्तकों की खरीदारी करने में हैदराबाद के एक प्रसिद्द हिन्दी प्रकाशक और पुस्तक-विक्रेता की दूकान पर पहुँच गई |

वे मेरे घनिष्ठ परिचितों में से थे मैंने ओशो की पुस्तकों के बारे में उनसे दरियाफ्त किया तो वे 10-12 पुस्तकें मेरे सामने रख गये प्रकाशक महोदय की पत्नी भी वहाँ उपस्थित थींउन्होंने मुझसे प्रश्न किया कि इतनी सारी ओशो की किताब आप एक साथ ले जा रही हैंइस बाबत कोई नई अभिरुचि मन में जागी है क्या मैंने नि:संकोच अपने मन की बात उनके सामने रख दी और शिविर में शामिल होने की बात भी उन्हें बता दी सुनकर वह हंसने लगी |

मैं अबाक-सी उस विदुषी और विद्वान महिला को हंसते हुए एक टक देखती रही उन्होंने कहा कि अच्छा किया कि एक कपोल-कल्पित और सुनी-सुनाई धारणा को दर किनार कर आपने ओशो को ओशो के माध्यम से समझने की कोशिश की है उन्होंने मुझसे ध्यान-शिविर में शामिल होने को कहा और यह भी कहा कि अगर आप ऐसा नहीं करेगी तो जीवन के एक सार्थक अनुभव से आप चूक जायेंगी ओशो के विषय में उन्होंने जो जानकारी दी उससे मेरी पूर्व धारणायें एक-एक होकर बिखर गई उनके अनुसार इस दुनिया में कई सौ वर्षों के इतिहास में ओशो से बड़ा कोई विचारक और दार्शनिक संभवत: नहीं पैदा हुआ है इस दृष्टि से उन्हें वर्तमान युग में एक अभिनव वैचारिक क्रान्ति का मसीहा कहा जा सकता है उनसे चिढने वाले आलोचक और उनके विषय में अप प्रचार करने वाले लोगउनकी आलोचना इस कारण करता है क्योंकि ओशो पुरातन-पंथी रूढ़ियों और मान्यताओं पर जम कर प्रहार करते हैं और धर्म के नाम पर आयोजित किये जाने वाले पाखंड को उजागर करते हैं वे धर्म की जगह धार्मिकता सिखाते हैं और मनुष्य मात्र की मुक्ति का एक चेतन रहस्य भी उद्घाटित करते हैं ओशो आज की दुनिया में निरंतर विकसित होती जटिलताओं के बीच एक ऐसे मनुष्य की परिकल्पना करते हैं जो स्वयं को अस्तित्व-चेतना का साक्षात्कार कर अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं तलाश करें |

उनके अनुसार मौजूदा समय में समूची दुनिया का एक बहुत बड़ा बौद्धिक तब का ओशो के क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित है | दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में उनकी पुस्तकों का अनुवाद हुआ है और हालत यह है कि इस समय दुनिया में सबसे अधिक किताबें भी उन्हीं की बिक रही है |  उन्होंने जिस धर्म-चेतना का बीजारोपण किया हैउसने परंपरावादी मजहबी अवधारणाओं से अलग एक ऐसे धर्म का प्रसार किया है जिसकी वैश्विकता देश और काल के बाहर अपने को प्रतिष्ठित करती है | ओशो एक नये विज्ञानवादी युग के अपने परिकल्पित मानव को जोरबा दी बुद्धा के नाम से अभिहित करते हैं | उनका यह परिकल्पित मनुष्य एक ऐसा मनुष्य है जो ध्यान की कला के साथ भौतिक और आध्यात्मिक जीवन का आनंद समग्रता के साथ ग्रहण करता है | ओशो एक मात्र दार्शनिक हैंजिन्होंने मनुष्य और उसके जीवन तथा उसके जागतिक संबंधों की यथार्थवादी व्याख्या की है | उनके जीवन काल में देश-विदेश के लाखों लाख लोगों ने उनकी व्याख्याओं को सराहा है और उनकी तार्किकता के सम्मुख उनके कहर से कट्टर विरोधियों को भी नतमस्तक होना पड़ा है | उन्होंने जो ध्यान-कला विकसित की हैउसपर उन्होंने कभी अपनी ‘कापी राईट’ की बात नहीं थोपीअपितु विभिन्न अध्यात्मिक साधनाओं को विकसित पद्धतियों को वर्त्तमान युग के अनुकूल उन्होंने संशोधित और परिमार्जित किया है | इस क्रम में उन्होंने योग तंत्र हसीद और सूफी जैसी परंपराओं के नवीन संस्करण प्रस्तुत किये हैं | साथ ही राजनीति, कला, विज्ञानमनोविज्ञानदर्शनसमाजशिक्षापर्यावरण और गरीबी जैसे विषयों पर भी अपने क्रांतिकारी विचारों से सोचने समझने की एक नई पद्धति दी है | सब मिलाकर उनके बारे में इतना जरुर कहा जा सकता है कि वे इस पृथ्वी पर नये मनुष्य की नई परिभाषा के रूप में अवतरित हुए थे और उनकी परंपरा की अक्षुण प्रवाह ओशोधारा के रूप में उनके बाद भी प्रवाहित हो रहा है | अपनी बात समाप्त करते-करते उन्होंने इतना जरुर कहा कि मैं ध्यान-शिविर में उपस्थित होकर जीवन के एक ऐसे स्फूर्तिदायक अनुभव से परिचित हो सकती हूँ,  जो अब तक दुर्लभ रहा है |

उस महिला की वाणी में ओशो को लेकर जो दृढता का भाव थामैं उससे चमत्कृत भी हुई और उसने मुझे भीतर से झकझोर भी दिया मैं उन्हें सुनती रही और मन ही मन यह सोचती भी रही कि मैं कितनी मिथ्या धारणाओं की शिकार थी मैं ही क्योंइस तरह की मिथ्या धारणाओं के शिकार न जाने कितने लोग हैंजो अपने पूर्वाग्रहों और कुठागस्त विचारों के चलते वास्तविकताओं और सच्चाइयों की अनदेखी करते हैं दुकान से किताबें लेकर जब मैं वापस आ रही थी तो मेरा मन ओशो के संबंध में बहुत हद तक अपने पूर्व के विचारों से बाहर आ चुका था मेरी उत्सुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि घर आकर मैं ओशो के प्रवचनों की पुस्तकों का अध्ययन करने में इस कदर जुट गई कि इस क्रिया में कोई भी व्यवधान मुझे अखरने लगता इन प्रवचनों से ज्यों-ज्यों मैं गुजर रही थीमुझमें एक सर्वथा नवीन स्पंदन का संचार होता महसूस होने लगा था मैं इस बात की शब्दों में व्याख्या करने में असमर्थ हूँ कि मैं किस कदर एक सम्मोहन के जादू से बंध गई थी मेरे लिए हर शब्द नवीन थाहर विचार नवीन था और मेरी दृष्टि अब अपने भीतर-बाहर उसी नवीनता को तलास करने में संलग्न थी मुझे इस बात का आजीवन पछतावा रहेगा कि ओशो के जीवन-काल में मैं उनके सानिध्य से वंचित रह गई |

ओशो के प्रवचनों की वह सारी पुस्तकें जो मैं खरीद कर ले आई थीबड़ी तन्मयता और लगन के साथ पढ़ गई कई प्रसंग ऐसे आते थे जहां मेरा संस्कार शील मन उनकी बातों तथा तर्कों से सहमत नहीं हो पाता थालेकिन उनके तर्कों का कोई जवाब नहीं था संभवत: जवाब दे पाना किसी के लिए संभव न हो उनकी व्याख्यायें विचार के लिए इतने सारे आयाम निर्मित करती थीकि पढने वाला चमत्कृत रह जाता था सच पूछा जाय तो मेरी भावदशा एक दम ओशोमय हो गई थी अब मुझे बड़ी बेसब्री के साथ उस दिन का इंतज़ार था जब मैं ओशो के शिष्यों और उनके निकटस्थ लोगों द्वारा आयोजित पूना के निकट लोनावाला के एक रिसोर्ट में था अत: मुझे हर हाल में 17-6-2004 को वहाँ उपस्थित होकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेनी थी मैंने कमलेश जी को फोन से सूचित कर दिया कि मैं उचित समय पर मुंबई पहुँच जाउंगी और वहाँ से एक साथ शिविर के लिए कार द्वारा प्रस्थान किया जाएगा इसी बीच एक दिन कमलेश जी का फोन आया कि ध्यान-शिविर अग्रिम सूचना तक के लिए स्थगित कर दिया गया है इस समाचार ने मुझे बहुत हतोत्साहित किया ओशो के विषय में इतनी सारी जानकारियाँ इकट्ठा करने और उनके साहित्य का अध्ययन करने के बाद मैं बहुत उत्कंठित थी गनीमत यह हुई कि निराशा का यह दौर बहुत जल्द समाप्त भी हो गया कमलेश जी का फोन आया कि कार्यक्रम अपने पूर्व निर्धारित समय पर ही होगा उनके इस फोन ने मुझे फिर से संजीवनी सुधा पिला दी और मैं एक बार फिर नवीन उर्जा से भर गई |

अंतत: इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुई मै जून की 17 तारीख को प्रात:काल मुंबई  पहुँची | साथ में मेरा बेटा राजेश भी था वहाँ कमलेश जी हमारा इंतज़ार कर रही थी अब मुंबई से हमें लोनावाला की यात्रा करनी थी कमलेश जी के सुपुत्र ने हमें अपनी गाडी से ढाई घंटे में वहाँ पहुंचा देंगे कहा मुंबई ने हमारा स्वागत रिमझिम फुहारों के साथ किया था और लोनावाला पहुँचने तक एक खुशनुमा मौसम का क्रम यथावत बरकरार रहा पूरा आकाश बादलों से घिरा थाहवा में नमी होने के कारण गर्मी की तपिश का जरा भी अहसास नहीं हो रहा था इस आर्द्रता के आवेग ने मन को रास्ते भर विभोर रखा दूर-दूर तक हरीतिमा का विस्तारित प्रसार मन को आह्लादित करने के लिए पर्याप्त था एक तो ध्यान-शिविर में सम्मिलित होकर एक सर्वथा नवीन विधा से जुड़ने की उत्कंठा और उत्साह और दूसरा प्रकृति का मोहक और आकर्षक विन्यासमैं एक अनिर्वचनीय सुख के पालने में अपने को झूलता हुआ महसूस कर रही थी इसी भावदशा में सराबोर कब हम चारों अपने गंतव्य तक पहुँच गयेइसका आभास ही नहीं हुआ रिसार्ट इतना सुन्दर और भव्य थासाथ ही दूर-दूर तक पसरी बनानी की शोभा उसके सौंदर्य को कई-कई गुणा प्रदर्शित कर रही थी भव्यतासुषमा और सौंदर्य की त्रयी वहाँ साकार रूप में विराजमान थी वहाँ पहुँचते ही हमारा भावभीना स्वागत किया गया स्वागत की भूमिका में माँ दिव्या और स्वामी अखिलेश  जी स्वयं प्रस्तुत थेयह हमारे लिए गौरव की बात थी उनकी कृपा से हमें जो रूम आवंटित किया गया वह ध्यान हॉल के बिल्कुल बगल में था पूरे रिसार्ट को नई नवेली दुल्हन की तरह सजाया गया था गहमागहमी भी काफी थी और गैरिक वस्त्र में दीक्षित सन्यासी इधर-उधर आते-जाते बड़ी संख्या में दिखाई दे रहे थे इसमें विदेशी स्त्री-पुरुष सैलानियों तथा सन्यासियों की संख्या भी बहुत अधिक थी विचित्र बात यह महसूस हुई कि इतनी भीड़-भाड़ के बावजूद एक निर्मल शान्ति ने पूरे वातावरण को अपने आगोश में समेट रखा था वहाँ पहुँचने पर यह भी पता चला कि आज ओशो शैलेन्द्र (ओशो के अनुज) का जन्मदिन हैजो सायंकाल सात बजे हॉल में गीत-संगीत के साथ बड़े धूम-धाम के साथ मनाया जायेगा यह सब मेरे लिए एक नया अनुभव था जिसे मैं संकोच के साथ ही सहीपूरा का पूरा समेट लेना चाहती थी |

कमलेश जी के सुपुत्र हमें वहाँ छोड़कर मुंबई चले गये एक लंबा आराम करने के बाद हम तीनों ने सायंकालीन कार्यक्रम के लिए अपने को तैयार किया और ठीक सात बजेउस विस्तृत हॉल में प्रवेश कर गयेजहां ओशो शैलेन्द्र जी का जन्मदिन समारोह आयोजित था हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहाजब हमने देखा कि हॉल लगभग पूरी तरह भर चुका थालेकिन बैठने की व्यवस्था अत्यंत सुरुचि पूर्ण समझ में आई कोई भी किसी से बात नहीं कर रहा थाबस बहुत मधुर आवाज में एक पार्श्व संगीत बज रहा था संगीत की धुन मंत्र-मुग्ध करने के लिए पर्याप्त थी इसी बीच ओशो शैलेन्द्र कुछ लोगों के साथ मंच पर उपस्थित हुए गैरिक वस्त्र में लिपटे एक ओजश्वी व्यक्तित्व ने सबको अपना अभिवादन समर्पित करने के बाद एक शानदार आसान पर स्वयं को आसीन किया |  गुलाब के इत्र से सुवासित हॉल में उपस्थित समुदाय द्वारा उच्चरित ओंकार मंत्र ने सब को एक तन कर दियाइसी क्रम में ध्यान-विधि पर ओशो शैलेन्द्र का एक छोटा सा प्रवचन और उसके बाद गायन संध्या ओशो शैलेन्द्र की ताली में एक अद्भुत चुम्बकीय शक्ति का आभास हुआ ध्यान के विषय में उन्होंने बताया कि यह जीवन जीने की वह कला हैजिसमें प्रतिपल जागरुक रहना पड़ता है वर्ना जीवन एक विचित्र किस्म की बेहोशी और तंद्रा में व्यतीत होता चला जाता है और हम अपने आतंरिक आनंद के स्पर्श से अछूते रह जाते हैं उन्होंने ध्यान की कुछ विधियाँ बताई | विधियाँ इतनी सरल सहज थीं कि सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इनके जरिये किसी तरह का रूपांतरण संभव हैलेकिन जब हम इसे व्यवहारिक रूप में करने लगे तो एक आनंदात्मक अनुभूति के साथ शरीर का रोम-रोम प्रहर्षित हो उठा इन विधियों की सार्थकता यह है कि मैं आज भी इनसे जुड़ी हूँ और ये मुझे मानसिक तथा आध्यात्मिक शान्ति प्रदान करती है |

ध्यान विधियों के बाद संगीत की मनमोहक ध्वनि पर संकीर्तन आरंभ हुआजिसे सभी लोग लयबद्ध-ताली के साथ दुहरा रहे थे आश्चर्य यह है कि कोई किसी की ओर न देख रहा था और न ताक-झाँक कर रहा था हर कोई स्वयं में तल्लीन था और स्वयं में निमग्न था संकीर्तन के साथ-साथ घोषणा की गई कि जो जहाँ है वहीं खड़े होकर नृत्य करें यह मेरे लिए बहुत कठिन था मैंने कभी नृत्य नहीं किया मेरा स्थूल शरीर और मेरी उम्र भी इसमें एक बहुत बड़ी बाधा थीमैं बहुत देर तक अपने स्थान पर बैठी रहीजबकि मेरी सहयात्री कमलेश जी और बेटा राजेश आँखें मूंदे गजब का ठुमका लगा रहे थें वास्तविकता यह है कि मोहक संगीत की धुन पर थिरकने का मन तो मेरा भी हो रहा थामेरे पाँव उस थिरकन की गति को ग्रहण करने को आतुर भी थेलेकिन एक अनजाने संकोच ने जंजीर डाल कर उन्हें जड़वत बना दिया था मैंने दूर-दूर तक आँख पसार कर देखा तो मेरे सिवा वहाँ कोई ऐसा नहीं था जो स्वयं में लीन विभोर-भाव में नृत्य न कर रहा हो सारा हॉल आनंदातिरेक से विस्फारित ध्वनियों की अनुगूँज बन गया सा लगता था ऐसी स्थिति में मेरी वर्तमान अवस्था को हास्यास्पद नहीं तो और क्या कहा जाएगा दिक्कत तो यह भी थी कि मैं हॉल छोड़ कर बाहर भी नहीं जा सकती थी |

मुझे तनिक भी आभास नहीं हुआ कि स्वामी अखिलेश मेरे पीछे खड़े काफी देर से मेरी इस विडम्बना पूर्ण असमंजस की स्थिति को निहार रहे थे वे मेरे नजदीक आये और उन्होंने मुझसे नृत्य में भाग न लेने का कारण पूछा मैंने बहुत सहज उत्तर दिया कि मैं नाचना नहीं जानती और कभी नाची भी नहींअतएव संकोच हो रहा है उन्होंने एक निर्मल हँसी के साथ कहा कि यह ध्यान-शिविर इसी तरह के जड़ संकोचों की गाँठ खोलने के लिए ही आयोजित किया गया है उनके अनुसार संस्कारों से बंधा चित्त अपनी नैसर्गिकता में स्वयं को स्थापित नहीं कर पाता है मनुष्य अपनी ही बनाई गई गुत्थियों में उलझ गया है इस कारण हम उस आनंद के प्रवाह से अछूते रह जाते हैंजो हमें निसर्ग ने उपहार स्वरूप दिया हैजरुरत इस कारागृह से बाहर आने की है जहाँ तक सवाल नाचना आने का है तो इस बात को गहराई से समझ लीजिए कि निसर्ग की जीवन धारा सबको अपने ताल पर नचाती हैशर्त बस इतनी सी है कि आप स्वयं को जड़ मत बनाइए संगीत इस निसर्ग की अंत ध्वनि है प्रकृति ने हमें भी इस अंत ध्वनि की संवेदना से जोड़ा है आप अपने को बस इस धारा के लिये छोड़ दीजिए किसी तरह का प्रतिरोध मत कीजिए आप को आश्चर्य होगा कि आप अपने को नाचता हुआ पायेंगी खड़ी हो जाइए और अपनी आँखें मूंद कर कुछ क्षणों के लिए संगीत को अपनी चेतना से अठखेलियाँ करने दीजिए अगर वह आपको थिरकने के लिए विवश करता हैतो आप कोई बाधा अपनी ओर से मत खड़ी कीजिए |

स्वामी अखिलेश के प्रोत्साहन ने मुझ पर जादू का असर किया मैं उठकर खड़ी हो गई आँख मूंद कर मैंने संगीत की ध्वनि-तरंगों को आत्मसात करने की कोशिश की संगीत मेरे रोम-रोम में झंकृत होने लगा और एक आनंदप्रद थिरकन मेरी धमनियों के रक्त-संचार में घुल मिल सी गई फिर मुझे पता भी नहीं चला कि संगीत की लयबद्धता कब मेरे पाँवों के साथ गतिमान होने लगी अनगढ़ और अशास्त्रीय सही एक नृत्य मेरे अस्तित्व के साथ जुड़ गया मुझे यह भरोसा हुआ कि मैं नाच सकती हूँ मेरा पूरा अस्तित्व नाच सकता है और मैं गति-धारा के इस अनोखे प्रवाह में एक छोटे से तिनके की तरह बहने लगी इस अवस्था में मैं कब तक नाचती रही मुझे कुछ पता नहीं चला संगीत बंद होने के बाद मेरी संज्ञा लौटी जीवन में पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि मैं एक सार्थक आनंद की साक्षी बनी हूँ इस कार्यक्रम में शामिल होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी हॉल से बाहर आने के बाद मेरी स्थूल काया गुलाब के फूल से भी हल्की महसूस कर रही थी |  भोजन करने के बाद हमने अपने को निद्रा देवी की गोद के हवाले कर दिया इतनी गहन और गहरी नींद संभवत: जीवन में कभी नहीं आई थी काफी देर तक सोती रही सुबह जब नींद खुली तो दिन चढ आया था रात की नींद ने मन और शरीर दोनों को प्रफुल्लित कर दिया था इस कारण सुबह उठते ही मेरे भीतर से एक गुनगुनाहट भी फूट पड़ी मुझे हैरत इस बात पर भी हुई कि मैं नाच ही नहीं गा भी सकती हूँ |

रिमझिम फुहारें सुबह से पड़ रही थी मौसम सचमुच बहुत सुहाना था ऐसे में कुछ आलस्य और कुछ बेफिक्री के चलते मुझे ध्यान के लिए निर्धारित समय पर उपस्थित होने में कुछ विलम्ब हो गया वैसे भी यह हमारा पहला दिन थाक्योंकि हमने नो दिन का टिकट ले रखा था हॉल में पहुँची तो कार्यक्रम की शुरुआत होने ही वाली थी स्वामी जी अपने आसन पर आसीन थे संभवत: हॉल में देर से पहुँचने वालों में तीन ही थे (मैंबेटा राजेश और कमलेश जी) स्वामी जी की निगाहें हम पर पड़ी उन्होंने विलम्ब होने की बात पूछीहम चुप रह गये स्वामी जी का कहना था कि आलस्य और प्रमाद व्यक्ति क्षमता को कुंठित कर देते हैं और फिर आदमी एक झूठे अहंकार की सृष्टि कर जीवन की सहजता और निर्मलता को नष्ट कर देता है उन्होंने बताया कि समय की अनंत धारा का निर्माण क्षणों का समुच्चय मात्र है अगर इस धारा में बहते एक क्षण को भी आत्मसात करने से हम चूक जाते हैंतो सारा जीवन विश्रृंखलित होता जाता है और हम कुंठाओं के गुंजलक में फँस जाते हैं उन्होंने आगे से हमें समय का ध्यान रखने को कहा अपनी गलती को महसूस करते हुए हम यथास्थान बैठ गये |

प्रारंभ में स्वामी जी ने हमें ध्यान की कुछ अत्यंत सरल विधियों के विषय में बतलाया साथ ही यह भी कहा कि कहने-सुनने में ये विधियाँ बहुत आसान लगती हैलेकिन जब साधक इनके साथ किसी प्रयोगात्मक स्थिति में होता है, तो यह बड़ी जटिल और कठिन समझ में आने लगती है कारण यह है कि मन निरंतर विचारों के प्रवाह में बहता रहता है और जब साधक किसी एक विषय पर इसे केंद्रित करने की कोशिश करता है तो इसकी चंचलता एकाग्रता को भंग कर देती है अतएव इसे बहुत जागरूक होकर साधने की जरुरत होती है स्वामी जी ने सिर्फ दस मिनट के लिए विधि बताई और उस पर सबको अमल करने को कहा मैंने भी अपनी ओर से प्रयास कियालेकिन हुआ वही जो स्वामी जी ने बताया था मन बिदके हुए घोड़े की तरह इस-उस दिशा में भागने लगा फिर मेरी समझ में आया कि इसे अगर निरंतर साधा जाएगा तो निश्चित रूप से सध जाएगा मुझे यह भी समझ में आया कि जिन बातों को हम बहुत आसान समझते हैंवास्तव में वे बहुत कठिन होती है दस मिनट का निर्धारित समय व्यतीत हो जाने के बाद स्वामी जी ने सबको रिलेक्स हो जाने को कहा और कुछ देर बाद वे कुछ लोगों को मंच के पास माइक पर क्रमवार बुलाने लगे वे सभी से एक ही सवाल पूछते थे कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है ?बहुत से लोगों ने बहुत सारा जवाब दिया इसी क्रम में मेरी भी बारी आ गई मैं घबड़ा गई माइक पर बोलना मेरे लिए बहुत कठिन होता है फिर भी उनकी आज्ञा का अनुपालन तो करना ही था साहस बटोर कर मैं माइक पर गई तोलेकिन मेरे मुँह से शब्द तक नहीं फूटेउल्टे मेरी आँखों से अविरल अश्रुपात होने लग गये मेरी हिचकियाँ फूट पड़ीं वहाँ उपस्थित सभी लोग मेरी इस भावदशा को अपलक निहार रहे थे पता नहीं कितने जन्मों का संस्कार मेरे आँसुओं के साथ बह रहा था स्वामी जी ने मुझे शांत किया बहुत साहस करके मैं सिर्फ इतना कह सकी कि मैं एक अल्प शीक्षित घरेलू महिला हूँमुझे दुःख में भी शांति मिलती है और सुख में भी उसी शांति की तलाश में मैं आपका सानिध्य भी चाहती हूँ इतना कहने के साथ ही मैं अपने स्थान आ गई अपने स्थान पर बैठे-बैठे मुझे महसूस हुआ कि मैं एकदम निर्भर हो गई हूँएक नन्ही सी चिड़िया की तरहजिसका सारा सुख इस डाल से उस डाल फुदकने तक सीमित होता है सायंकाल शिविर से वापसी के समय मुझे यह प्रतीत हुआ कि इस नौ दिन के प्रयास में मुझे जो मिला हैअब तक यहाँ-वहाँ भटकते हुए कभी नहीं अर्जित कर सकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह हुई कि मेरा मन ओशो-धारा में अवगाहन को उत्प्रेरित हुआ और वह आज भी है |
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
   मीडिया प्रभारी
अध्यक्षा (इण्डिया काइण्डनेस मूवमेंट)
हैदराबाद
मो.नं.: 09441511238
 
 

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