Wednesday 8 August 2018

अमरनाथ यात्रा – अमरनाथ गुफा




अमरनाथ यात्रा – अमरनाथ गुफा
       दिनांक 9-8-2006 को मैं अपने पुत्र राजेश के साथ हेलीकॉप्टर पकड़ने हेलीपैड पर पहुंची। हेलीकॉप्टर ने हम दोनों को पवित्र गुफा से थोड़ा नीचे उतार दिया। मौसम एकदम से खुशगवार हो गया था और आकाश में बादल लगभग विदा हो गए थे। पहाड़ों के बीच से झांकते भगवान भुवन भास्कर की किरणें समूचे वन प्रांत की हरीतिमा को अपने स्वर्णिम आभा का उपहार बांटने लगी थीं। मेरी जन्म-जन्म की अभिलाषा आज पूरी होने जा रही थी, क्योंकि मैं बर्फानी बाबा की पवित्र गुफा के प्रवेश द्वार तक आ गई थी। मैं बिल्कुल अभिभूत थी और मेरा मन एक निर्मल शांति की संवेदना को अपने में समेटे हुए था। जिधर भी दृष्टि जाती थी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलायें, ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के घने जंगल और हरीतिमा ओढ़े सुरम्य घाटियों का एक मोहक संसार दिखाई पड़ रहा था। श्रीनगर से उत्तर-पूर्व दिशा में 140 कि.मी. दूर भगवान अमरनाथ की यह पवित्र गुफा है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 14450 फीट (3952मीटर) है। यह गुफा पीर-पंजाल पर्वत की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित है। इसकी महत्ता यह है कि गुफा में स्वयंभू रूप में हिम-निर्मित शिवलिंग का प्राकट्य होता है और कुछ दिनों के बाद स्वयं: विलीन भी हो जाता है। यहां जो कुछ है सब प्राकृतिक है। मानव निर्मित कुछ भी नहीं है। गुफा का द्वार खुला हुआ है और नीचे की भूमि भी उबड़-खाबड़ खुरदरी तथा पथरीली है। गुफा की कुल लंबाई 60 फीट, चौड़ाई लगभग 30 फीट और ऊंचाई 15 फीट है। गुफा में स्वयं ही शिव लिंग का आकार लेना प्रकृति की अद्भुत लीला का प्रसाद ही है। इस दैवी चमत्कार को शीश नवाने श्रद्धालुजन देश-विदेश से लाखों की संख्या में यहां आते हैं, हिम निर्मित शिवलिंग श्रावण की अमावस्या से उसी मास की पूर्णिमा तक अपने विशालकाय आकार को वृद्धिगत करता हुआ अपने को शनै:-शनै: क्षीण करता जाता है और फिर अमूर्त हो जाता है। आज तक यह कोई नहीं जान सका है कि पथरीली चट्टानों के बीच सफेद रुई के फाहे की तरह की वर्क कहां से उद्भुत होती है। अंत: इसे ईश्वरी कृपा का प्रसाद मान कर आस्थावान लोगों ने इस प्राकृतिक शिवलिंग को अपनी अन्यतम श्रद्धा से समादृत किया है। यहां स्थित गुफा में गुफा की ऊपरी चट्टान से बूंद-बूंद जल श्रृवित होता है। यही बूंदे जम कर बर्फ बन जाती है और लगभग 8 फीट का एक विशालकाय शिवलिंग निर्मित हो जाता है। इस शिवलिंग की गोलाई भी 7फीट व्यास की होती है। अमरनाथजी अपना स्वरूप घटाते-बढ़ाते रहते हैं, लेकिन भक्तों की मान्यता कि वे लुप्त कभी नहीं होते और दृश्य-अदृश्य रूप में हमेशा इसी गुफा में निवास करते हैं| इसे भी एक अन्यतम आश्चर्य ही स्वीकार किया जाना चाहिये कि जिस हिम पीठिका पर अमरनाथ जी लिंग रुप में विराजमान होते हैं, वह हिम पीठिका पक्के बर्फ की होती है जब की गुफा के बाहर सर्वत्र कच्ची बर्फ​ मिलती है। इस गुफा में एक ओर गणेश पीठ और दूसरी ओर पार्वती पीठ भी है। पार्वती पीठ को 51 शक्ति पीठों में गिना जाता है, क्योंकि यहां माता सती का कंठ गिरा था। गुफा में एक स्थान पर प्राकृतिक रूप से भस्म भी प्रकट होती है रहती है, जिसे भक्तगण शिव-प्रसाद मानकर घर ले आते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने सर्वप्रथम माता पार्वती को श्रावण की पूर्णिमा के दिन अमरत्व प्राप्ति का ज्ञान दिया था और तत्संबंधी एक कथा भी सुनाई थी। इसी कथा को सुनकर शुकदेव जी ने भी अमरत्व की सिद्धि प्राप्त की थी। यही कारण है कि इस तिथि पर श्रद्धालु जन यहां बाबा अमरनाथ जी का दर्शन प्राप्त करने को लालायित रहते हैं। वैसे यह यात्रा गुरु पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक होती है। इस पवित्र गुफा के नीचे अमरावती गंगा प्रवाहित होती है। यात्रीगण इस नदी
में स्नान करने के बाद गुफा में हिम-शिवलिंग के दर्शन के लिए प्रवेश करते हैं।
     प्रतिवर्ष श्रावण सुदी पंचमी को दर्शनार्थियों का दस्ता शारदा पीठ के पीठाधीश्वर शंकराचार्य के नेतृत्व में श्रीनगर से अमरनाथ गुफा के लिए रवाना होता है। श्रीमद् शंकराचार्य चांदी की एक छड़ी लिए संत-महात्माओं की टोली के साथ आगे-आगे चलते हैं। स्थान-स्थान पर स्थानीय जनता द्वारा इस जुलूस का जयकारे के साथ स्वागत किया जाता है। जुलूस की सुरक्षा कश्मीर पुलिस के अलावा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लोग भी करते हैं। जब देश और प्रदेश में आतंकवाद का खतरा बढ़ा है और पिछले कई साल इन आतंकवादियों ने दर्शनार्थियों के जुलूस पर हमला कर जो खूनी खेल खेला था, उसे देखते हुए सतर्कता और सुरक्षा का बड़ा चौकस बंदोबस्त किया जाता है। धमकी त इस वर्ष भी आतंकवादियों की ओर से दी गई थी, लेकिन जिस प्रकार की व्यवस्था तथा घेराबंदी सुरक्षा बलों की ओर से की गई है, उसको भेद पाना  इन आतंकवादियों के लिए अत्यंत कठिन है। आतंकवादी भले ही अपनी कुत्सित सांप्रदायिक सोच के चलते सांप्रदायिक भाई-चारे का माहौल बिगाड़ने की कोशिश करें, लेकिन कश्मीर के मुसलमान भाई न सिर्फ इस यात्रा को सफल बनाने में पूरी तरह सहयोग करते हैं, बल्कि वे यात्रियों, दर्शनार्थियों की कदम-कदम पर हिफाजत भी करते हैं। यहां तक कि इस गुफा की खोज का श्रेय भी एक मुसलमान व्यक्ति को ही जाता है। बूटा मल्लिक नाम के एक गुर्जर मुसलमान जो भेड़-बकरी चराता था, ने पहली बार बर्फानी बाबा की खोज की थी। कहा जाता है कि इसी क्रम में उसकी मुलाकात एक साधू से हुई, जिन्होंने उसे कोयले से भरा एक बोरा दिया। बोरे को घर ले आने के बाद बूटा ने जब उसे खोलकर देखा तो वह चौंक उठा, क्योंकि वह बोरा सोने की अशर्फियों से भरा हुआ था। फिर उस साधु के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रस्तुत करने जब वह उस स्थान पर पहुंचा तो वह साधु को नहीं पा सका। उसने उस साधु की खोज गुफा में करने की कोशिश की और वह गुफा में प्रवेश कर गया। वहां उसे हिम-शिवलिंग का अद्भुत नजारा देखने को मिला। यह खबर जब बाहर की दुनिया में प्रसारित हुई तो बर्फानी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु जनों का सैलाब उमड़ पड़ा। परम सिद्ध संत स्वामी विवेकानंद जी ने भी सन् 1898 ईस्वी में इस पवित्र गुफा की यात्रा कर हिम-शिवलिंग का दर्शन किया था।
        अमरनाथ गुफा की खोज के बाद एक पौराणिक संदर्भ भी जुड़ गया। जितना रोचक इस गुफा में बर्फानी बाबा का प्राकट्य है, उससे कम रोचक इससे संदर्भित पौराणिक कथायें भी नहीं है। कथा कहती है कि एक दिन माता पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे स्वामी मैं तो मरणधर्मा हूं क्योंकि पिछले जन्म में सती के रुप में पैदा हुई थी, किंतु आप मृत्यु से परे हैं, ऐसा क्यों है? शिवजी ने इसके पीछे अमरकथा को कारण बताया। उन्होंने कहा कि इस अमर कथा को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति जरा-मृत्यु से परे हो जाता है। इतना सुनने के बाद माता ने शिवजी से वह अमरकथा सुनाने का आग्रह किया। शिवजी ने माता का आग्रह स्वीकार कर लिया, लेकिन वे ऐसा एकांत चाहते थे जहां पार्वती के अलावा कोई दूसरा श्रोता न हो। शिव-पार्वती इस निश्चय के साथ ऐसे स्थान की खोज में निकल गये। खोज करते हुए वे कश्मीर क्षेत्र के पहलगाम पहुंचे। यहां आकर शिवजी ने अपने वाहन नंदी बैल का परित्याग कर दिया। इस स्थान का प्राचीन नाम "बैल ग्राम" था, जो अब पहलगाम हो गया है। पहलगाम से चंदनवाड़ी जाते समय रास्ते में "नीलगंगा" का दर्शन हुआ। कहते हैं कि सदाशिव क्रीड़ा में माता पार्वती की आंखों का काजल अपने मुख पर लगा बैठे थे, जिसे उन्होंने एक नदी के जल में धोया था। इस क्रिया में नदी का जल नीला हो गया और नदी "नीलगंगा" के नाम से प्रसिद्ध हो गई। चंदनवाड़ी पहुंचकर शिवजी ने चंद्रमा को भी अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया। वहां से वे "पिस्सूघाटी" गये, जिसका नाम त्रेशांक पर्वत है। इसके पीछे भी एक रोचक कथा है। एक बार देवता और राक्षस एक साथ शिव-दर्शन के लिए पहाड़ चढ़ रहे थे कि दोनों में पहले चढ़ने और पहले दर्शन पाने की होड़ लग गई। विवाद आगे बढ़ते-बढ़ते युद्ध का रुप ले लिया। देवताओं ने शिवजी का ध्यान कर राक्षसों का न सिर्फ संहार किया, बल्कि उनकी हड्डियों का चूरा बनाकर वहां पर्वत पर बिखेर दिया। जहां-जहां राक्षसों की हड्डियों का पिसा हुआ चुरा बिखरा वह जगह "पिस्सू घाटी" के रूप में विख्यात हो गई। 
        शिव-पार्वती आगे शेषनाग झील पहुंचे। लिद्दर नदी जिस पर्वत से निकली है उसका नाम "शेषनाग पर्वत" है। कथा कहती है कि इस स्थान पर पहुंचकर शिवजी ने अपने गले में पड़ी सर्पों की माला का भी परित्याग कर दिया। इसी कारण यह पर्वत और झील "शेषनाग" के नाम से विख्यात हुई। कहते हैं कि जिस स्थान पर शिवजी ने नागों का त्याग किया था वहां की शिलाओं पर आज भी नागों के चित्र मौजूद हैं। इससे जुड़ी एक दंतकथा यहां और प्रचलित है। कहते हैं कि इस पर्वत पर एक बलशाली राक्षस रहता था। वह देवताओं को बहुत त्रास देता था। देवताओं ने शिव की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया तथा इस राक्षस से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। शिवजी ने कहा कि वे इस राक्षस को दीर्घायु होने का वरदान दे चुके हैं। अंत: आप लोग भगवान विष्णु से इसके लिए प्रार्थना करें। भगवान विष्णु ने देवताओं का निवेदन स्वीकार कर शेषनाग को उस राक्षस का विनाश करने को कहा। भगवान विष्णु की आज्ञा शिरोधार्य कर शेषनागजी ने देवताओं के त्रास-मुक्त करने के लिए उस राक्षस का वध किया। इस पहाड़ और झील का नाम फलत: इस कथा से भी संदर्भित हो गया। यहां के लोगों की मान्यता है कि इस पर्वत के पत्थरों से छोटे-छोटे​ घर बनाने और झील के जल में स्नान करने से ब्रह्म -हत्या और गौ-हत्या जैसे पापों से मुक्ति मिल जाती है। शेषनाग झील में पर्वतीय वनौषधियों का सत्व मिल जाने के कारण इस झील का पानी अत्यंत स्वास्थ्यप्रद है। भगवान भोलेनाथ का इस क्रम में अगला पड़ाव "पंचतरणी" था। इस स्थान पर शिव ने माता के साथ तांडव नृत्य किया था और उनकी जटायें शिथील होकर खुल गई थीं, जिससे जटावद्ध गंगा की धारा उन्मुक्त होकर यहां पांच धाराओं में बहने लगी थी। इस स्थान पर भगवान शिव ने पांच तत्वों-- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का भी त्याग कर दिया था। यह स्थान मौजूदा समय में अनंतनाग से दो हिस्सों में प्रारंभ होने वाली यात्रा का संगम स्थल है। यहां बालटाल वाले यात्री भी मिल जाते हैं। बालटाल से संगम तक की दूरी 11 कि.मी. है। इस स्थान से अमरनाथ गुफा की दूरी सिर्फ 3 कि.मी. की है। पंचतत्वों का त्याग करने के बाद शिव-पार्वती ने गुफा में प्रवेश किया, जहां भगवान शिव ने अपना मृग-चर्म  बिछाया और उस पर बैठकर ध्यान मग्न हो गये। कालांतर में उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कालाग्नि रुद्र को प्रकट कर आदेश दिया कि इस गुफा में निवास करने वाले सभी जीव-जंतुओं को जला दें। कालाग्नि रुद्र ने उनके आदेश का अक्षरश: पालन किया। बावजूद इसके भगवान शिव की मृगछाला के नीचे कबूतर का एक अंडा बच गया। शिव की शरण में होने के कारण कालाग्नि भी उसका बाल-बांका नहीं कर सकी थी। अमरकथा प्रारंभ करने के पहले शिव ने माता पार्वती को ध्यान से सुनने तथा बीच-बीच में हुंकारी भरते रहने को कहा| उन्होंने यह भी कहा कि हुकारी बंद होने की अवस्था में वे कथा सुनाना बंद कर देंगे। किंतु देव प्रेरणा से बीच कथा में भवानी को नींद आने लगी और उन्होंने हुंकारी बंद कर दी, लेकिन उसी समय मृगछाला के नीचे दबा पक्षी का अंडा फूट गया और उससे प्रकट होने वाला जीव माता की जगह कथा में हुकारी भरने लगा। कथा समाप्ति के बाद शिवजी ने माता को निद्रामग्न पाया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि अगर यह निद्रामग्न थीं तो कथा में हुंकारी कौन भर रहा था। भगवान शंकर ने जब इधर-उधर तलाश किया तो वह पक्षी का बच्चा उन्हें दिखाई दे गया। शिव ने उसे पकड़ना चाहा तो वह पंख फैलाकर उड़ गया। शिव ने उसक वध करने के लिए अपना त्रिशूल छोड़ दिया। उसी समय व्यास जी की पत्नी अपने द्वार पर बैठी जम्हाई ले रही थी, जिसकी वजह से उनका मुंह खुल गया था। तोते के बच्चे ने उचित अवसर देखकर व्यास पत्नी के मुख में प्रवेश किया और वह उनके पेट में चला गया। इधर तोते की तलाश में शिवजी व्यास जी के घर पहुंचे और उन्होंने तोते के बच्चे को बाहर निकालने को कहा। व्यास जी ने किसी ऐसे प्राणी की उपस्थिति अपने घर में होने की बात सिरे से नकार दी, लेकिन व्यास पत्नी ने स्वीकार किया कि जम्हाई लेते समय कोई पक्षी उनके मुख में प्रवेश कर पेट में चला गया है। भगवान शिव ने वहीं डेरा डाल दिया और कहा कि इस पक्षी के बच्चे को बाहर निकलते ही मार डालेंगे। व्यास जी ने ऐसा न करने के लिए उन्हें बहुत मनाया, लेकिन शिवजी अपना हठ त्यागने को तैयार नहीं थे। अंततः शिवजी से निराश व्यासजी ने भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से इस समस्या का हल खोजने की प्रार्थना की। दोनों विभूतियों ने उपस्थित होकर उदरस्थ बच्चे को बाहर आने के लिए आश्वस्त किया और यह भी कहा कि वह अमर कथा सुनने के बाद स्वयं अमर हो चुका है। साथ ही वह वेदों के समस्त ज्ञान से भी परिपूर्ण हो चुका है। आश्वासन पाकर तोते का बच्चा बाहर आया। प्रसिद्ध ऋषि​ और महान ज्ञानी "शुकदेव"जी महाराज का प्राकट्य इसी रूप में हुआ और वे अमरत्व के महाप्रसाद से भी विभूषित थे। एक बार शुकदेव जी ने बहुत आग्रह के बाद इस कथा का वाचन ऋषि-मंडली में करना प्रारंभ किया तो कथा के प्रभाव से समस्त लोकालोक कंपायमान हो उठा, अतः  शिवजी ने शाप दिया कि यह कथा आगे से अमरत्व प्रदान करने में अक्षम सिद्ध होगी। उन्होंने बहुत प्रार्थना के बाद इस शाप को संशोधित करते हुए कहा कि आगे से अमरत्व की जगह है श्रवण करने वाले को शिवलोक की प्राप्ति होगी। यह समूची कथा अब अमरनाथ गुफा और उसमें अद्भुत होने वाले हिम-शिवलिंग से संदर्भित हो चुकी है।
       हम दोनों ने कई सीढ़ियां चढ़ने के बाद इस पवित्र गुफा में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही मेरा मन भूत भावन भगवान शिव के भक्ति आलोक से आलोकित हो उठा और मुझे लगा कि मैंने जन्म-जन्मांतर की अपनी समस्त यात्रा का पुण्य-लाभ मात्र इस एक क्षण में अर्जित कर लिया है। मैं किस हद तक विकल, विहल और विभोर थी, उसका वर्णन मैं शब्दों के माध्यम से नहीं कर सकती। मुझे लगा कि संभवत: जीते जी मुझे शिवधाम की उपलब्धि हो गई है। हम दोनों मां-बेटे बर्फानी बाबा के साक्षात स्वरूप का दर्शन कर धन्यत बोध से आप्लाविप्त उठे। गुफा में बूंद-बूंद जल टपक रहा था। कहा जाता है कि गुफा के ठीक ऊपर रामकुंड है, जहां से यह जल श्रवित होता है। गुफा में जंगली कबूतरों का डेरा भी बहुतायत मात्रा में है। यहां हमने सफेद कबूतरों का जोड़ा भी देखा, जिसका दर्शन बहुत शुभ कर माना जाता है। सबसे विचित्र अनुभव यह था कि गुफा में शीत का प्रकोप बिल्कुल नहीं था। एक अनुभव यह भी कि यहां आते ही इतनी लंबी और कष्टकर यात्रा की थकान एकदम छूमंतर गायब हो गई थी। हम आनंद-विभोर थे और एक आध्यात्मिक शांति हृदय को उत्फुल्लता से सराबोर कर रही थी। हम गुफा के बाहर आये तभी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एस.के. सिन्हा के आने की घोषणा की गई और चारों तरफ सुरक्षा का घेरा मजबूत बना दिया गया। हमने नजदीक से राज्यपाल महोदय को देखना चाहा, लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने हमें रोक दिया। दर्शन करने के बाद राज्यपाल महोदय वापस चले गए। अभी उन्हें गये आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि साधु-संतों की अगुवाई में छड़ी मुबारक का जुलूस आ गया। गाजे-बाजे के साथ ध्वजा लिए और जयकारा करते इस जुलूस का उत्साह देखते ही बनता था। हमने यहां कई अविस्मरणीय चित्र भी अपने कैमरे में कैद किए। वहां से कृतार्थ होकर हम वापस हेलीपैड पर आये और थोड़ी ही देर में हेलीकॉप्टर से बालटाल पहुंच गए। वहां से टैक्सी में बैठकर हम वापस श्रीनगर पहुंच गये। वहां नगीन झील के हाउस बोट में भोजन करने के बाद विश्राम किया। अमरनाथ जी के दर्शन के बाद मन और शरीर दोनों ही प्रफुल्लित थे, इस कारण नींद भी बहुत अच्छी आई। दूसरे दिन एयर डेक्कन की फ्लाइट पकड़ कर हम दिल्ली पहुंच गये। दिल्ली में मेरे भाई मदन जी के घर रुक गये। हमारी इच्छा स्वामी नारायण मंदिर, जिसे अक्षरधाम भी कहते हैं, के दर्शन की थी।
संस्थापक अध्यक्ष: विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका: यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो. 09703982136



अमरनाथ यात्रा – बालटाल




अमरनाथ यात्रा – बालटाल
        सोनमर्ग से बालटाल लगभग 15 कि.मी. दूर है । अमरनाथ यात्रा के समय यहां अस्थाई तौर पर तंबू लगाकर यात्रियों का आवास बना दिया जाता है । हम जब इस स्थान पर पहुंचे तो चमत्कृत रह गये, क्योंकि हमने इसके पहले इतना बड़ा तंबुओं का नगर कभी नहीं देखा था। यहां सरकार की ओर से भी और बहुत ही सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की ओर से भी यात्रियों को यथा संभव हर तरह की सुविधा प्रदान की जाती है। बड़े-बड़े शिविरों में धार्मिक संस्थाएं यात्रियों के लिए भंडारा चला रही थी। इस तरह कई शिविरों में चिकित्सक बीमार पड़ रहे अस्वस्थ यात्रियों का दवा-इलाज कर रहे थे। बालटाल पर्वतीय श्रृंखला के बीच एक सुंदर स्थान अवश्य है, लेकिन यहां कोई आबादी नहीं है। यहां सिर्फ उस समय गुलजार होता है, जब अमरनाथ की यात्रा शुरू होती है। तब अस्थायी तौर पर तंबू लगाकर यात्रियों को यहां विश्राम, भोजन और चिकित्सा की सुविधा दी जाती है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि यह चारों तरफ से घने जंगलों से घिरा हुआ है। यात्रा के दिनों में कुछ जरुरी सामानों की दुकानें भी यहां लग जाती है। बालटाल से पवित्र गुफा के लिए जाने के लिए एकमात्र रास्ता पैदल अथवा घोड़े की सवारी का है। संपन्न लोग यहां से हेलीकॉप्टर के जरिए भी यात्रा करते हैं, लेकिन ऐसा तब होता है जब मौसम साफ हो। मेरा टिकट हेलीकॉप्टर से उड़ान भरने का बहुत पहले ही बुक हो चुका था। मैं अपने बेटे राजेश का टिकट लेने के लिए परिशान थी। एक फौजी से पता करने पर मालूम हुआ कि कल खराब मौसम के चलते हेलीकॉप्टर नहीं उड़ेंगे। कल ही छड़ी मुबारक ही आने को थी। मतलब यह कि कल का दिन भगवान अमरनाथ के दर्शन का अंतिम दिन होगा। मेरे मन में निराशा पैठ गई और मैं बहुत अधिक भाव से बर्फानी बाबा को पुकारने लगी कि वे अपने द्वार से इस तरह ना लौटावें। इसे दैवी कृपा ही कहा जाएगा कि राजेश अपना टिकट भी ले आया और यह समाचार भी कि हेलीकॉप्टर अवश्य उड़ेगा। मैंने बर्फानी बाबा को मन ही मन धन्यवाद दिया और मैं इतनी गदगद तथा आह्लादित हुई की मेरे नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।

अमरनाथ यात्रा – सोनमर्ग




अमरनाथ यात्रा – सोनमर्ग
 एक बार फिर तेज रफ्तार भागते वाहन के साथ पीछे की ओर दौड़ते सुंदर दृश्यों से हमें मुखातिब होना पड़ा। रास्ते में एक केंद्रीय रिजर्व बल की छावनी भी देखने को मिली। मन में यह भाव जरूर उठा की भारत माता के ये सपूत देश की सीमा पर रक्षा में कितने समृद्ध और तत्पर हैं। सड़क अच्छी थी, इस कारण वाहन को तेज रफ्तार भागने में कोई दिक्कत नहीं थी। जिस रास्ते से हम जा रहे थे वास्तव में वह श्रीनगर को लेह से जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग था। इसी रास्ते एक पुल से गुजरते हुए हमने देश की सर्वाधिक प्रसिद्ध सिंधु नदी का भी दर्शन किया। बरसात के मौसम में यह नदी अपने तटबंधों को पार कर एक असीमित विस्तार में प्रवाहित हो रही थी। इस क्रम में हमें सोनमर्ग पहुंचते-पहुंचते सांझ हो गई। अंत: इस दिन विश्राम करना ही उचित समझा गया।
       श्रीनगर से सोनमर्ग की दूरी लगभग 102 कि.मी. है। समुद्र तल से यह स्थान 2730 मीटर की ऊंचाई पर है। सोनमर्ग का अर्थ "सोने की घाटी" होता है और उसका निहितार्थ धरती का यह छोटा सा टुकड़ा सत्य सिद्ध करता समझ में आता है। इस घाटी की शोभा अपनी स्वर्णिम आभा के साथ अतुलनीय है। इस भूमि का जुड़ाव भौगोलिक रूप से सिंधु नदी की घाटी से भी है। यहां से होती हुई सिंधु नदी अपना अविरल प्रवाह तथा वेग के साथ समतल मैदानी इलाके में उतर जाती है। यह कई प्रसिद्ध झीलों का उद्गम स्थल भी है, जिसमें बिशनसर, कृष्णसर, गाडसर, सतसर और गंगा बल जैसी झीलें काफी प्रसिद्ध है। यहां स्थापित अभ्यारण्य पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण का केंद्र है। सोनमर्ग चारों तरफ से बृहदाकार पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ है। पर्वत श्रृंखलाएं बर्फ से ढकी दिखाई देती है। नीचे किसी मुलायम रेशमी कालीन की तरह घासों का प्रसार है। देवदार के घने जंगलों के बीच नाचती-कूदती और अठखेलियां करती सिंधु नदी का उद्वाम प्रवाह, हर तरफ रंग-बिरंगे अपरिचित सुगंधो से भरपूर फूलों का अभिनव दृश्य, सब मिलकर जिस संसार की रचना होती है उसे स्वर्णिम नहीं तो और कहा भी क्या जा सकता है। सच यही है कि इन सारे दृश्यों के गुंजलक में हम भाव-विभोर स्थिति में कहीं गुम हो गए थे। यहां से घोड़े अथवा खच्चर के जरिए थाजीवास ग्लेशियर तक की यात्रा भी की जा सकती है। यह ग्लेशियर सोनमर्ग से कहने को सहज 3 कि.मी. की ही दूरी पर है, लेकिन इस रास्ते की चढ़ाई बहुत कठिन है। यहां मौसम अक्टूबर से मार्च तक बहुत खुशगवार रहता है। इस समय प्राकृतिक शोभा का आनंद लूटने वाले पर्यटकों की भीड़ बढ़ जाती है। थाजीवास से लौटने के बाद हम एक रेस्टोरेंट में चाय-नाश्ता करने के बाद कुछ सुस्ताये। सोनमर्ग से 10 कि.मी. दूर एक सड़क ऊपर जोजिला की तरफ से होती हुई कारगिल चली जाती है। इसका एक तरफ जुड़ाव श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग से होता है तो दूसरी तरफ यह बालटाल चली जाती है। बालटाल से एक रास्ता पवित्र अमरनाथ की गुफा को जाता है, लेकिन यह रास्ता बहुत सुनसान है और इस पर जाते हुए डर लगता है। हमने यह खतरा इस कारण मोल लिया क्योंकि रास्ते के प्राकृतिक दृश्यों ने हमें सचमुच सम्मोहित कर दिया था।

अमरनाथ यात्रा - खीर भवानी मंदिर




अमरनाथ यात्रा - खीर भवानी मंदिर
खीर भवानी का मंदिर श्रीनगर से लगभग 27 किलोमीटर दूर श्रीनगर-सोनमर्ग पर स्थित तुलामुला गांव में है। यहां गांधरबल से 3 किलोमीटर दूर एक छोटी सड़क से आवागमन होता है। कश्मीर का हिंदू जनमानस इस मंदिर के प्रति एक भावनात्मक श्रद्धा से बंधा है। अमरनाथ यात्रा के समय यहां तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ होती है। यहां के लोग खीर भवानी को "रगनिया देवी" के नाम से पुकारते हैं। इन्हें दुर्गा माता का ही रूप माना जाता है। एक समतल घाटी में यह मंदिर ऊंचे-ऊंचे चिनार वृक्षों से घिरा हुआ है। इस मंदिर से 5 किलोमीटर की दूरी पर मानसबल झील है।मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव और माता दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित हैं। कहा जाता है कि इस क्षेत्र का यह अकेला मंदिर है जहां शिव और शक्ति की पूजा- उपासना एक साथ होती है। सनातन रूप में यहां प्रथा है कि भोग अर्पित करते समय देवी को खीर अवश्य प्रस्तुत की जाती है। संभवत: इसी परंपरा ने देवी का नामकरण खीर भवानी कर दिया है। मंदिर का निर्माण एक कुंड के बीच में किया गया है। पाकिस्तान से लगे सीमा क्षेत्र में होने के कारण वर्तमान समय में मंदिर की देख-रेख और पूजा-पाठ की जिम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के जवानों को सौंप दी गई है।
       माता खीर भवानी के प्राकट्य के संबंध जो कथा यहां प्रचलित है, उसे अद्भुत ही कहा जा सकता है। कहा जाता है कि एक समय लंकाधिपति रावण ने अपनी घनघोर तपस्या से माता पार्वती को प्रसन्न कर उनसे लंका में निवास करने का वर प्राप्त कर लिया। उसे यह पता था कि ऐसा होने पर न सिर्फ उसकी लंका संपत और समृद्ध होगी, बल्कि वह हर दृष्टि से सुरक्षित भी हो जाएगी। वह माता के विग्रह को लंका के उत्तरवर्ती क्षेत्र में स्थापित कर अत्यंत प्रसन्न हुआ। माता ने एक कुंड में अपना निवास बना लिया। इस कुंड की सुरक्षा नागों की एक सेना करती थी। राक्षस राज रावण देवी की पूजा तामसिक पद्धति से करता था, जिसमें पशु बलि भी दी जाती थी, अलावा इसके-उसके अत्याचारों से भी माता बहुत क्षुब्ध थी। त्रेतायुग में जब भगवान राम ने भगवती सीता को प्राप्त करने के लिए जब लंका पर आक्रमण किया तो भगवती श्यामा ने हनुमान को आदेश दिया कि वे उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर सती देश (कश्मीर) ले चलें। माता इस बात को जानती थी कि उनके लंका में रहते रावण को कोई परास्त नहीं कर सकता। अत: भगवान राम की विजय सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने यहां से जाना ही उचित समझा। महावीर हनुमान ने माता के आदेश का पालन किया और उन्हें वे 300 नागों के साथ वायु मार्ग से प्रस्थान किया। देवी पहले विष्णुपाद गई जहां रम्य वनस्थली में कुछ समय विश्राम करने के बाद दवसर गांव की उपत्यका, लुटकीपुर (अनंत नाग), राईयन, वादीपुर, कोटितीर्थ, चंडीपुर तथा शारदा तीर्थ होते हुए अंत में पवित्र​ शादीपुर के पास हिमालय की तलहटी में अपना स्थान बना लिया। वृक्षों से आच्छादित यह भूमि माता की दिव्यता से विभूषित है। माता ने यहां जिस सप्तकुंड में निवास करना स्वीकार किया उसके वे आज भी सप्तमात्रिकाओं और वीजा क्षरों सहित सुशोभित है। यहां माता के कुंड की पूजा नैवेद्य, दुग्ध, मिष्ठान, खीर जैसे सात्विक पदार्थों से प्रारंभ हुई। यह परंपरा आज भी बरकरार है।
       इसी संदर्भ में माता की खीर भवानी की स्थापना की और कथा हमें सुनने को मिली। मुगल शासन काल के अंतिम चरण में श्रीनगर के एक परम देवी भक्त और उपासक श्रीकृष्णदास टपिल थे। ये बहोरी कुदल में रहते थे तथा इनकी गणना मान्य विद्वानों में भी होती थी। कहा जाता है कि एक रात स्वप्न में माता खीर भवानी ने उन्हें दर्शन देकर उस जलमग्न तीर्थ की खोज करने को कहा जो माता का वास्तविक निवास स्थान है। माता ने यह खोज नौका द्वारा करने को कहा और यह भी कहा कि एक विशालकाय नाव जल में तैरता हुआ उनका पथ-प्रदर्शन करेगा। वह नाग तैरता हुआ जिस स्थान पर अपना फण उठाकर खड़ा हो जाएगा समझना कि मैं उसी स्थान पर निवास करती हूं। पंडितजी ने इस स्वप्न की चर्चा अपने बंधु-बांधुओं से की तो वे भी प्रसन्न मन इस अभियान में शामिल हो गये। पंडितजी इनके साथ नौका पर सवार हो गांधार बल की दिशा में आगे बढ़े। कुछ ही देर बाद एक विशालकाय नाग आकर नौका के आगे-आगे चलने लगा। आंगे बढ़ते हुए नागराज तुलमुला ग्राम के समीप एक दलदली भूमि पर खड़े हो गये। पंडितजी कृष्ण दास ने उस निर्देशित भूमि पर एक बड़ी सी लकड़ी गाड़ दी। नागराज ने यहां जल के ऊपर एक षटकोणीय आकार की परिक्रमा की। नागराज ने जहां-जहां चक्कर लिया, पंडितजी ने वहां-वहां जगह के डंडा गाड़ कर चिन्हित कर लिया। इस तरह वर्तमान कुंड की सीमा नागराज ने निर्धारित कर दी। फिर नागराज उस स्थान पर पहुंच कर अपना फण उठाये खड़े हो गए, जहां से उन्होंने चक्कर काटने की शुरुआत की थी। इतना करने के बाद वह सबके सामने देखते-देखते अदृश्य हो गये। बाद में भक्तों ने बड़े परिश्रम और सूझ-बूझ से इस षटकोणीय परिक्रमा को एक कुंड के रूप में परिवर्तित किया। वर्तमान में यह स्थान एक द्वीप जैसा है जिसके मध्य एक षटकोणीय परिक्रमा स्थित है। इस षटकोणीय परिक्रमा का महत्व भक्तों में सर्वत्र व्याप्त है और वे इसकी परिक्रमा को देवी कृपा का अवलंब मानते हैं। 
          कुंड की एक विशेषता यह भी है कि समय-समय पर इसका रंग बदलता रहता है। विशेषकर जब देश अथवा क्षेत्र पर कोई विपत्ति आसक्त होती है, तो इस अमृत कुंड का जल काला पड़ जाता है। इसकी एक दूसरी विशेषता यह है कि यदा-कदा जल की सतह पर स्वयंभू यंत्र उभर आते हैं। ऐसे समय भक्तगण इस यंत्र का दर्शन कर स्वयं को धन्य हुआ मानते हैं। मंदिर में प्रवेश कर हमने शिव और शक्ति की युग्म-पूजा की। पूजा के बाद नैवेद्य और पुष्प हमने यज्ञ कुंड में प्रवाहित किये। यहां हम आरती में भी शामिल हुए और प्रसाद में वितरित हो रही खीर भी ग्रहण की। पूजा-अर्चना के बाद इस परिसर में स्थापित अन्य देवी-देवताओं का भी दर्शन किये। यहां हमने कबूतरों को दाना भी खिलाया और प्राकृतिक दृश्यों के कई फोटो भी कैमरे में कैद किये। यहां के बाद हमने अपनी गाड़ी सोनमर्ग के रास्ते पर डाल दी |

अमरनाथ यात्रा - शंकराचार्य मंदिर




अमरनाथ यात्रा - शंकराचार्य मंदिर
हम दूसरे दिन प्रात:काल उठकर शंकराचार्य मंदिर के लिए निकले | यह प्रतिष्ठित स्थान श्रीनगर से 5 कि.मी. दूर है और इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 6240 फीट की है | यह श्रीनगर से उत्तर-पूर्व दिशा में एक सुंदर पहाड़ी पर स्थित है | यहाँ ‘गोपादरी अथवा ‘गुपकार’ टीले को शंकराचार्य अथवा ‘तख़्त-ए-सुलेमान’ कहते हैं | कहा जाता है कि शंकराचार्य के चौथे शंकराचार्य ने सन् 820 ई. में इस पहाड़ी पर तपस्या की थी, इस कारण इस पहाड़ी का नाम उनके नाम से जुड़ गया | यूँ कई इतिहासकारों ने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इसकी बुनियाद राजा अशोक के पुत्र ‘जन्नूक’ ने डाली थी | इस मंदिर का निर्माण उस समय की शिल्पकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, क्योंकि मंदिर का निर्माण डोरिक अर्थात अष्टकोणीय पद्धति से सुंदर और चिकने पत्थरों को तराश कर गया गया है | वैसे इसकी मरम्मत समय-समय पर यहाँ के कई राजाओं ने कराई है | इस मंदिर के मुख्य चबूतरों से न सिर्फ पीर-पंजाल की पर्वत श्रृंखलाओं के अलावा पूरे श्रीनगर का विहंगम दृश्य दिखाई देता है | इसके अलावा जबरवान पहाड़ियाँ तथा
उसके नीचे डल झील तथा उत्तर में जेठनाग और दक्षिण में झेलम नदी भी स्पष्ट दिखती है | मौजूदा समय में इस पहाड़ी पर बने मंदिर के गर्भगृह में शिवजी विराजमान हैं | लगभग 300 से कुछ कम सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ही मंदिर परिसर तक पहुँचना संभव हो जाता है | आदि शंकराचार्य की मूर्ति यहाँ दाहिनी तरफ एक काँच के चैम्बर में स्थापित है | तत्पश्चात लगभग 47 सीढ़ियाँ और चढ़कर मंदिर तक पहुँचा जाता है | एक अद्भुत बात यहाँ यह पता चली कि मंदिर में शिवलिंग की स्थापना यहाँ के एक मुस्लिम शासक शेख मुहीउद्दीन ने की थी | वर्त्तमान में इस मंदिर को शंकराचार्य मंदिर ही कहा जाता है और जिस पहाड़ी पर मंदिर स्थित है, उसे शंकराचाय पहाड़ी के नाम से पुकारा जाता है | कहा यह भी जाता है कि वर्त्तमान मंदिर का आदेश पंजाब के रणजीत सिंह ने अपने तत्कालीन राज्यपाल शेख मुहीउद्दीन को दिया था |इस मंदिर तक पहुँचने के दो रास्ते हैं, एक दुर्गानाग की तरफ से और दूसरा नेहरू पार्क से | दुर्गानाग की तरफ से यहाँ पहुँचने का मार्ग महाराजा गुलाब सिंह ने सन् 1925 ई. में बनवाया था | हम स्वयं मंदिर के लिए नेहरू पार्क से सड़क मार्ग से पहुँचे थे | यहाँ के शिवलिंग का हमने विधिवत दुग्धाभिषेक किया | हमने पूरे परिसर घूम कर इस स्थान की मनोहारी छवि तथा इसका विधिवत अवलोकन किया | सन् 1974 ई. में इस पहाड़ी पर टी.वी.टॉवर की भी स्थापना कर दी गई है और परिसर के एक बड़े भाग में फौज ने अपना अस्थायी शिविर भी स्थापित कर लिया है | हमने यहाँ के बहुत सारे दृश्यों को अपने कैमरे में कैद किया और आगे एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान खीर भवानी के मंदिर के दर्शनार्थ चल पड़े |

अमरनाथ यात्रा - गुलमर्ग



अमरनाथ यात्रा - गुलमर्ग
हामारा आगे का सफर गुलमर्ग जिसका अर्थ ‘फूलों की घाटी’ होता है, का था | यह जगह श्रीनगर से 56 कि.मी. दूर है और समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 2650 मीटर की है | गुलमर्ग की गणना दुनिया के सबसे खुबसूरत हिल स्टेशनों में की जाती है | चारों तरफ हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियाँ और उनकी तलहटी में सुविस्तृत हरा-भरा घास का मैदान तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की लंबी कतारें इस स्थान को नंदन-कानन जैसा बना देती है | इसके मैदान से सटे कई प्रसिद्ध गोल्फ के मैदान हैं, जहाँ दुनिया के प्रसिद्ध खिलाड़ी आते रहते हैं | सर्दियों में जब बर्फबारी होने लगाती है तो गुलमर्ग और भी खुबसूरत लगने लगता है | यहाँ के होटलों में बर्फबार देखने आने वाले पर्यटकों की भीड़ लग जाती है | दुधिया रंग की बर्फ की चादर ओढ़े इसके मैदान एक नयी सौन्दर्य रचना का आयाम प्रस्तुत करते हैं | हमने भी सन् 1982 के मार्च महीने में यह लुत्फ उठाया था | मुग़ल सम्राट जहाँगीर इस खूबसूरती पर बिल्कुल फिदा हो चुका था | वैसे अक्तूबर से मार्च तक मौसम बहुत खुशगवार होता है | सर्दियों में यहाँ स्कीईंग करने वाले लोगों की भी आमद बड़ी संख्या में होती है | गुलमर्ग जितना प्रिय मुग़ल बादशाहों का था, उससे कहीं अधिक प्रिय वह अंग्रेजों को भी था | ऊँचे-ऊँचे अंग्रेज अदिकारी अपनी गर्मी की छुट्टियाँ यहाँ व्यतीत करने आया करते थे | सन् 1904 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित ‘गुलमर्ग गोल्फ क्लब’ आज भी दुनिया के गोल्फ मैदानों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा परक माना जाता है | रास्ते भर रिमझिम बरसात होती रही थी और यहाँ भी मौसम वैसा ही था | हमने रेनकोट पहन रखी थी | हमने पूरा इलाका घूमने के लिए दो घोड़े किराये पर लिए | घोड़े की पीठ पर बैठने का यह मेरा अनुभव कुछ डर भी पैदा कर रहा था, लेकिन आश्वस्त मैं इस बात से थी कि घोड़ा वाला हमारे साथ चल रहा था | वह हमें यहाँ एक स्थान पर ले गया और वहां से 5 कि.मी. नीचे ‘बाबा ऋषि’ की ‘जिरत बाबा ऋषि’ दरगाह दिखाते हुए उसने बताया कि इनकी जियारत हिन्दू-मुसलमान समान रूप से करते हैं | यह दरगाह घने जंगल के बीच है | कुछ लोगों ने ऋषि का नाम ‘फदामुद्दीन’
बताया | रास्ते में घोड़े वाले ने हमें कई अन्य महत्त्वपूर्ण स्थानों का अवलोकन कराया, जिसमें
खिलगमर्ग, ऐलपत्थर झील, फिशिंग लेक, स्टावर वैली, कश्मीर वैली, चिल्ड्रेन पार्क, फौज के रिहायशी शिविर और विहार स्प्रींग वैली इत्यादि जगहें शामिल थी | इस तरह घूमते- फिरते गोल्फ गार्डेन देखते हुए हम गण्डोला पहुँचे | सच तो यह है कि हमारी यह गुलमर्ग यात्रा इसी गण्डोला को केंद्र में रखकर हुई थी | लगभग 3 बजकर 10 मिनट पर हम यहाँ गण्डोला कार में बैठे | पाइन वृक्षों की ढलान पर इस कार में सैर करने का आनंद ही कुछ और था | इसकी गति कितनी तेज थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महज 13 मिनट में हम कोंगडोरी पहुँच गए |
      कोंगडोरी समुद्रतल से 10050 फीट की ऊँचाई पर स्थित है | इस जगह से ‘सन साइन पीक’ दिखाई देता है | पाइन वृक्षों की ढलान पर स्थित इस स्थान को देखने पर्यटकों का दल सदैव आता रहता है | यहाँ के बाद हम पुन: गण्डोला कार में बैठकर अक्षरवट गये, जिसकी ऊँचाई 14500 फीट है | इसको दुनिया का सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है | हमने इस ऊँचाई पर पहुँच कर अपने को गौरवान्वित महसूस किया | साथ ही मानवीय विकास की सराहना भी की, जिसके चलते दुनिया की सारी ऊँचाइयाँ बौनी हो गई है | मुझे पल भर में जुलाई 2004 में यू.के. की यात्रा स्वीट्जरलैंड के -----की याद ताजा हो आई जो ऊँचाई पर स्थित है | हम कोंगडोरी होते हुए वापस गुलमर्ग आ गये | हमने यहाँ कुछ चाय नाश्ता किया और हाउसबोट तक पहुँचने के पहले शंकराचार्य मंदिर जाने का भी निश्चय किया, लेकिन हमें जिस रास्ते से जाना था वह सायंकाल 5 बजे के बाद प्रतिबंधित हो जाता था | अतएव हमें अपना कार्यक्रम बदल कर हाउसबोट की ओर ही जाना पड़ा  |

अमरनाथ यात्रा – कश्मीर-श्रीनगर




अमरनाथ यात्रा – कश्मीर-श्रीनगर
करीब 25 साल पहले मैं कश्मीर आई थी | वैसे यह मेरी कश्मीर की चौथी यात्रा थी, लेकिन तब मेरी दृष्टि पर्यटक की दृष्टि नहीं थी| अत: इस बार सारे संसार में स्वर्ग के नाम से विख्यात कश्मीर को एक पर्यटक की निगाह से निहारने की उत्सुकता मेरे मन में बनी हुई थी | वैसे देश में और विदेशों में भी रमणीय सुषमा से युक्त दर्शनीय स्थलों की कोई कमी नहीं है और अपनी-अपनी जगह सभी विशिष्ट है, लेकिन कश्मीर मात्र विशेष ही नहीं, यह चिर युवा है और चिर नवीन है | यह वह है, जैसा कोई दूसरा कभी किसी हालत में हो ही नहीं सकता | सही अर्थों में कश्मीर सौन्दर्य-सुषमा का एक समुच्चय है |
      कश्मीर का अर्थ है, साफ-शफ्फाफ पिंघली हुई चाँदनी की तरह चमकती हुई झीलें, बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाएँ, घास के हरे-भरे मैदान, चिनार और देवदार के आकाश चूमते घने छायादार वृक्ष, सुविस्तृति वन्य उपत्यका, सुंदर से सुंदर उद्यान, ऊँचे-ऊँचे पर्वतों के बीच रंग-बिरंगे फूलों से लदी सुरम्य घाटियाँ तथा स्वच्छ जल से अभिषिक्त होती लिद्दर और सिंधु जैसी कई नदियाँ | प्रकृति की झोली में सौन्दर्य और सुषमा की ऐसी कोई निधि है ही नहीं, जिसे उसने कश्मीर की शोभा पर निछावर न किया हो | आज भी अकेले कश्मीर की इसी शोभा को निरखने दुनिया भर से जितने पर्यटक यहाँ आते हैं, उतने शायद ही अन्यत्र कहीं जाते हों | ‘आज भी’ कहने का मतलब यह है कि पिछले कई वर्षों कश्मीर घाटी आतंकवाद की ज्वाला में झुलस रही है और यहाँ की यात्रा करने वालों के मन में एक दहशत का भाव भर गया है | इस दहशत के बावजूद कश्मीर की झीलों पर तैरतें शिकारे आज भी पर्यटकों की आमद से गुलज़ार हैं | मुग़ल बादशाहों का लगाव कश्मीर की इस खूबसूरत वादी से अत्यंत घनिष्ठ रहा है और उन्होंने यहाँ कई शानदार इमारतों का निर्माण करवाने के साथ ही सुंदर उद्यानों की भी रचना की है | विशेष रूप से मुग़ल बादशाह जहाँगीर तथा शाहजहाँ और उनकी बेगमों ने कश्मीर को सजाने-संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है | सारी दुनिया इसकी खूबसूरती की दीवानी है और लोग इसे प्यार की घाटी कहकर पुकारते हैं | यूँ कश्मीर के तीन रिसॉर्ट – पहलगाम, गुलमर्ग और सोनमर्ग बहुत प्रसिद्ध हैं और इन तीनों तक पहुँचने के रास्ते अलग-अलग हैं | श्रीनगर, घाटी का सबसे बड़ा शहर है और वह कश्मीर की ग्रीष्म-कालीन राजधानी भी है |
      वास्तव में श्रीनगर को कश्मीर-वादी का दिल कहा जा सकता है | यह राज्य की राजधानी होने से गौरवान्वित अवश्य है, लेकिन शेष भारत से इसका जुड़ाव जम्मू से ही संभव हो पाता है | इस शहर का विस्तार कुल 105 वर्ग कि.मी. में है और समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 1730 मी. है | दिसंबर से फरवरी तक यहाँ शीत ऋतु का भयंकर प्रकोप रहता है | उस समय पूरा शहर बर्फबारी से ढाक जाता है और इसकी झीलें भी जमकर बर्फ बन जाती है, लेकिन मार्च से नवम्बर तक इसका मौसम बहुत खुशगवार होता है, तब इसकी हरी-भरी वादियों की शोभा दर्शनीय होती है | इस शहर की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है | इस शहर के बीचोबीच झेलम नदी बहती है और शहर का विस्तार नदी के दोनों तरफ सामान रूप से प्रसारित है | वैसे श्रीनगर को पुराना शहर और नया शहर के रूप में भी लोग विभाजित करते हैं | माना जाता है कि नये शहर की स्थापना यहाँ के राजा प्रवर सेन ने की थी | नगर के दोनों भागों को जोड़ने के लिए झेलम नदी पर सात पुल बनाये गये हैं | केसर की क्यारी से उठने वाली सुगंध इस शहर के वातावरण को हमेशा तरोताजा और स्वास्थ्यप्रद बनाये रखती है | मान्यता यह भी है कि शहर का अस्तित्त्व दो हजार सालों से यथावत कायम है और इसने उत्तर भारत के इतिहास में अपना एक ख़ास स्थान बनाया है | इस शहर को झीलों का शहर भी कहा जाता है | कहा यह भी जा सकता है कि पूरा शहर इन्हीं झीलों की गोद में लेटे हुए किसी शिशु की भाँती खिलखिलाता रहता है | डल, नगीन, नसीम और अंचार जैसी झीलें एक दूसरे के साथ मिलकर इस शहर को एक नया रुतबा और नया अंदाज देती है | वैसे डल झील को तो पूरी कश्मीर वादी की जीवन-रेखा कहने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता | डल झील के किनारे खड़े शिकारे, जिन्हें पर्यटकों के लिए मिनी होटल भी कहा जा सकता है, इस कदर सजे-सजाये दिखते हैं कि इनकी सुन्दरता डल झील की प्राकृतिक सुन्दरता को एक नया आयाम देती लगती है | कमोवेश यही दृश्य अन्य झीलों में भी दिखाई देता है | ये हाउसबोट एक तरह के अस्थायी निवास तो होते ही हैं, ये परिवहन की भी सुविधा प्रदान करते हैं | श्रीनगर जितना अपनी झीलों की वजह से ख्यात है, उतना ही यह अपने शानदार बाग़-बगीचों के लिए भी मशहूर है | परी महल, चश्मे शाही, निशात बाग़ और शालीमार को श्रीनगर की जान कहा जाता है | वैसे श्रीनगर अपनी कारीगरी के लिए भी पूरी दुनिया में जाना जाता है | यहाँ के लोग लकड़ी पर सुंदर बेल-बूटों की नक्काशी तो करते हैं, सबसे अधिक प्रसिद्ध यहाँ की पश्मीने की शाल है, जिस पर की गई कशीदाकारी अपनी कलात्मकता का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करती है | यहाँ की केसर बहुत मशहूर है और उसकी खेती यहाँ बड़े पैमाने पर होती है | यहाँ की जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या बहुत ज्यादा है, लेकिन नगर में हिन्दू, सिक्ख और ईसाई भी अपनी धार्मिक स्वतंत्रता के साथ रहते हैं | यहाँ हिन्दुओं के कई प्राचीन और आधुनिक मंदिर हैं | यहाँ शंकराचार्य और हनुमान मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं | मुसलमानों की हजरत बल मस्जिद के अलावा सिक्खों का गुरुद्वारा रेनवाड़ी की भी काफी प्रसिद्धि है | इसके अलावा ईसाईयों के लिए कैथोलिक चर्च भी है | इतना जरुर है कि सदियों से यह शहर धर्मनिरपेक्षता की एक मिसाल बना हुआ था, मगर पिछले कुछ सालों से अलगाववादियों और सीमा पार की राह पर आतंकवादियों के खूनी खेल के चलते यहाँ के लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति संदेह का वातावरण जरुर बन गया है और इसके चलते वादी में आने वाले पर्यटकों की संख्या भी घटने लगी है |
       हमने नगीन झील के एक हाउसबोट में एक रूम किराये पर ले लिया था | हमारा आज का लक्ष्य श्रीनगर और आस-पास के बहुत से दर्शनीय स्थल थे, जिसकी शुरुआत हमने यहाँ की प्रसिद्ध हजरतबल मस्जिद से की | हजरतबल मस्जिद डल झील के पश्चिमी छोर पर शहर से 9 कि.मी. की दूरी पर है | उसके एक ओर झील और दूसरी तरफ पहाड़ियाँ हैं | श्वेत रंग की इस सुंदर मस्जिद के भीतर प्रवेश करने के पूर्व तलाशी देनी पड़ती है | सफेद संगमरमर से निर्मित इसका विशाल गुंबद और एक मीनार इसकी शोभा में चार-चाँद लगा देते हैं | गुंबद पर बहुत सुंदर पच्चीकारी की गई है | मस्जिद को आधुनिक रूप में नया स्वरूप देने के कार्य सन् 1975 में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने किया था | मस्जिद में भीतर प्रवेश करने की इजाजत स्त्रियों को नहीं है | इसलिए मैंने बाहर से ही इसका अवलोकन किया | मुस्लिम औरतें बाहर वाले कक्ष में नमाज अदा करती हैं | मस्जिद के भीतर इस्लाम धर्म के प्रवर्तक और पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब का एक बाल यहाँ यादगार के तौर पर सुरक्षित रखा गया है | कुछ ख़ास-ख़ास मौकों पर यह लोगों के दर्शनार्थ प्रदर्शित किया जाता है | इस मस्जिद की ख्याति पूरे मुस्लिम दुनिया में है और बहुत दूर-दूर से यात्रायें कर मुसलमान यहाँ जियारत करने आते हैं | मस्जिद की खासियत यह है कि यहाँ कबूतरों की संख्या बहुत ज्यादा है | ये यहाँ आने-जाने वालों के सर पर मंडलाते रहते हैं और मस्जिद के परिसर में झुण्ड के झुण्ड उतर कर दाना भी चुंगते रहते हैं | हमने भी बाहर से मक्की के दाने खरीदकर परिसर में छींट दिया | देखते ही देखते सैंकड़ों  संख्या में कबूतर उतर कर दाना चुंगने लगे | हजरतबल के बाद हमें कायदन निशात बाग़, जो बिल्कुल मस्जिद के सामने है, जाना चाहिए था, लेकिन हमने यहाँ से परीमहल जाने का निश्चय कर लिया |
     परीमहल शहर से करीब 11 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह महल, कहा जाता है कि बहुत पहले एक बौद्ध मठ के रूप में प्रतिष्ठित था | चश्मशाही से भी एक रास्ता इस स्थान तक आता है | इस महल का जीर्णोद्धार कर इसको मौजूदा शक्ल में स्थापित करने का काम मुग़ल बादशाहों ने किया था | शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह ने इस स्थान को एक उच्चकोटि के ‘ज्योतिष विद्यालय’ के शक्ल में ढाला था | कई सीढ़ियाँ चढ़कर इसके भीतर प्रवेश करना होता है | महल के निचले खंड में भी दो मंजिलें हैं और ऊपरी खंड में भी दो मंजिलें हैं | इसका पूरा परिसर चारों तरफ से एक सुन्दर उद्यान के रूप में स्थापित है और बीच में यह सुन्दर महल इस तरह शोभायमान है, जैसे कोई परी अपने पंख फैलाकर बहुत आहिस्ता जमीन पर अपने पाँव रख रही हो | श्रीनगर के तीन गोल्फ के मैदान, जो झील के निकट बुलावार्ड रोड पर स्थित हैं, यहाँ से स्पष्ट और खूबसूरत दिखाई देते हैं | विश्व प्रसिद्ध ‘रॉयल स्प्रींग्स गोल्फ ग्राउंड’ इस महल के थोड़े ही नीचे है | यहाँ से श्रीनगर की शान समझा जाने वाला संतूर होटल भी दिखाई देता है | हमने इस महल सीढ़ियों पर बैठकर काफी समय व्यतीत किया और फिर निकट ही चश्मशाही की तरफ रवाना हो गए |
       डल झील को अगर कश्मीर घाटी की जान माना जाता है तो सुन्दर मुग़ल गार्डेन पूरे कश्मीर की शान है | चश्म-ए-शाही उसी मुग़ल गार्डेन की श्रृंखला की एक शानदार कड़ी है | यह उद्यान श्रीनगर  8 कि.मी. की दूरी पर एक सुंदर पहाड़ी पर स्थित है | इस बाग़ का निर्माण मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के गवर्नर अली मर्दान खां ने सन् 1632 ई. में कराया था | इस उद्यान की ऊँचाई शहर से बहुत ज्यादा है | पहली और दूसरी बार में क्रमश: 42 और 27 सीढ़ियाँ चढ़कर आखरी बार 7 और सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है, तब कहीं चश्मे के पास पहुँचने का मौका मिलता है | बाग़ के बीचो बीच एक शुद्ध जल का चश्मा है, जिसका पानी गर्मी के दिनों में भी बर्फ की ताशीर वाला होता है, लेकिन इस पानी को अत्यंत सुपाचक भी माना जाता है | पूरा बैग मुख्यत: तीन भागों में बंटा हुआ है | हालाँकि चश्मे-शाही उद्यान यहाँ स्थापित सभी मुग़ल उद्यानों में सबसे छोटा है, लेकिन इसकी खूबसूरती बेमिसाल है | यह ऋतु में सुन्दर सुगंधित पुष्पों का सुंदर अजायब घर प्रतीत होता है | इसका चश्मा भी प्राकृतिक है | कहा जाता है कि अपने द्वारा स्थापित सभी उद्यानों में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ इसी उद्यान को सबसे ज्यादा पसंद करता और तरजीह देता था | देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इसको बहुत पसंद करते थे | बहुत ऊँची पहाड़ी पर स्थित होने की वजह से श्रीनगर का अलौकिक दृश्य यहाँ से बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ता है | जम्मू-कश्मीर प्रांत के राज्यपाल का आवास भी इस उद्यान के बहुत निकट है | प्रांतीय सरकार ने इस उद्यान के एक भाग में एक ‘बोटेनिकल गार्डेन’ की स्थापना की है, जहाँ इस विषय के शोध के लिए बहुत बड़ा कार्य संपन्न होता है |
        हमारी अगली यात्रा निशात बाग़ की हुई | यह बाग़ महादेव पर्वत के ढलान पर श्रीनगर से 11 कि.मी. दूरी पर स्थित है | यहाँ जितने भी मुग़ल उद्यान है, उनमें इसका विस्तार सबसे अधिक है | इस बाग़ का निर्माण 1604 ई. में मुग़ल बादशाह जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ के भाई आसफ खां ने कराया था | बाग़ के निर्माण के बाद जब बादशाह जहाँगीर ने इस बाग़ का अवलोकन और निरीक्षण किया तो उसके मुख से अकस्मात ‘वाह! वाह!’ फूट पड़ा था और उसने यह भी माना था कि यह उद्यान उसके द्वारा स्थापित शालीमार उद्यान से ज्यादा खूबसूरत है | यह बाग़ 10 चबूतरों में बंटा हुआ है | बाग़ के बीचोबीच एक सुंदर और साफ जल से भरपूर एक नहर बहती है, जिसमें कई फव्वारें लगे हुए हैं | पूरा बाग़ विभिन्न देशी-विदेशी फूलों की प्रजातियों और हर प्रकार के फलदार वृक्षों से भरा पड़ा है | चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसकी प्राकृतिक शोभा अतुलनीय हो जाती है | बाग़ में प्रवेश के लिए कई सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है | इसकी ऊँचाई से नसीम झील का दृश्य बहुत मनमोहक दिखाई देता है | इस उद्यान को देखने के बाद मुझे इस बात का अहसास हुआ कि बादशाह जहाँगीर यूँ ही नहीं निशात बाग़ की खूबसूरती पर फिदा हो गया था | अब हमें उद्यानों के क्रम में अंतिम उद्यान शालीमार बाग की सैर करनी थी | अत: हम उसी ओर अग्रसर हुए |
       शालीमार बाग़ श्रीनगर से लगभग 15 कि.मी. दूर है | यह मुख्य राजमार्ग  बुलवर्ड रोड पर स्थित है | बादशाह जहाँगीर ने सन् 1616 में इस बाग़ का निर्माण अपनी रूपसी पत्नी नूरजहाँ के लिए कराया था | यहाँ के सभी उद्यानों में यह सबसे बड़ा माना जाता है और उसमें बहुत से चबूतरे तथा बारहदरियाँ हैं | यह बाग़ चिनार के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से घिरा हुआ है, साथ ही इस बाग़ में अलग-अलग प्रकार के फलदार वृक्षों की बहुलता है | गर्मी के तीन-चार महीने बादशाह जहाँगीर अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ इसी बाग़ में बिताया करते थे | बाग़ के भीतरी हिस्से में तामीर की गई इमारतें भी मुगलकालीन शिल्प कला का बेहतरीन नमूना प्रस्तुत करती है | बाग़ के बीचोबीच एक साफ-शफ्फाफ नहर बहती है, जिसमें बहुत सारे फव्वारे लगे हुए हैं | इस बाग़ के फूलों की खुशबू किसी को भी मदहोश बना सकती है | बाग़ के पिछले हिस्से में पर्वत श्रेणियों का प्रसार है और सामने से यह डल झील के अंतिम भाग से जुड़ा है | हमने इस बाग़ में फूलों की क्यारी के बीच कई तस्वीरें लीं और यहाँ के मालियों ने हमें कुछ ऐसे सुगंधित फूल दिये, जिनकी महक सूख जाने के लगभग एक महीने तक बनी रही | आज की यात्रा यहीं ख़त्म कर हम वापस नगीन झील के अपने हाउसबोट पर आ गये | यहाँ आकर भी हम चुप नहीं बैठे बल्कि शिकारे के जरिये हमने नगीन झील की सैर की |
      यह झील शहर से 8 कि.मी. की दूरी पर है | सड़क मार्ग से जाने पर यह सोनमर्ग मार्ग पर स्थित है | नौकायान और तैराकी की दृष्टि से पर्यटक इसे सर्वाधिक पसंद करते हैं | इसका गहरा नीला जल चाँदनी रातों में एक अद्भुत छवि प्रदर्शित करता है | हरिपर्वत पर स्थित किले की परछाई इस झील की सतह पर जब उभरती है, तब ऐसा लगता है कि कोई सुंदर जल-महल इस झील के भीतर आबाद है | इसका नाम नगीन इस कारण पड़ा है, क्योंकि इसे यहाँ के लोग इसे झीलों की अंगूठी का नगीना मानते हैं | झील में तैरते शिकारे में बैठे-बैठे हमने झील में तैरती संध्या की अरुणाभा के साथ ही रक्तवर्ण सूर्य के बिम्ब को भी नीले जल में तिरोहित होते देखा | संध्या के बाद जब शहर बल्बों की रोशनी में नहा उठा, तब इस झील में उभरती परछाइयों ने उसे एक अलौकिक शोभा का उपहार भेंट किया | हमें ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम धरती पर हैं, ऐसा महसूस हो रहा था कि एक स्वर्गिक स्वप्न लोक हमें किसी नई दुनिया से परिचित करा रहा है | इस झील को हरिपर्वत एवं शंकराचार्य पर्वत की श्रृंखलाओं ने अपनी विशाल भुजाओं में आबद्ध कर रखा है | शिकारे में बैठे-बैठे हमने दूर शंकराचार्य मंदिर के ज्योतिर्मय शिखर को झील के नीले जल में प्रतिबिंबित होते देखा | ऐसा लगा कि कोई सोने का मुकुट जल-धारा में फ़ेंक दिया गया हो | झील के किनारे-किनारे कमल और कुमुदनी के फूल यहाँ की ठंडी बयार को अपनी सुगंधियों से परितृप्त कर रहे थे | शिकारे वाले ने बताया कि यहाँ ‘फ्लोटिंग वेजीटेबल गार्डेन’ भी है, साथ ही एक कमल गार्डेन भी है, जहाँ कमल की खेती की जाती है | शिकारा कमल गार्डेन की ओर बढ़ चला | चूँकि रात हो चुकी थी, इस कारण कमल के फूल मुर्झा गये थे | हमने अनुमान लगाया कि प्रात: काल जब यह गार्डेन ताजा खिले फूलों से अपना दामन भर लेता होगा, तो नजारा कितना आनंददायक होता होगा ?
      बहुत देर तक नगीन झील में सैर करने के बाद हमारा शिकारा किनारे आ गया | रात भी गहराने लगी थी, अत: हमने भोजन लेकर विश्राम करना हो उचित समझा | दूसरे दिन हमने अपनी यात्रा की जो योजना बनाई उसमें प्राथमिक थी उस डल झील की सैर जिसे श्रीनगर का दिल कहा जाता है | यह झील सिर्फ कश्मीर ही नहीं पूरे भारत में सबसे बड़ी झील मानी जाती है | सच तो यह है कि यहाँ की अन्य झीलें भी इसी एक झील की शाखायें और सब कहीं न कहीं इस झील के साथ जुड़ती हैं | झील शहर के पूर्वाभाग में स्थित है | इसका पानी स्वच्छता और पारदर्शिता का एक मिसाल है | इसका विस्तार 8 कि. मी. लंबा तथा 4 कि.मी. चौड़ा है | पहले इसका प्रसार 28 वर्ग कि.मी. का था लेकिन अब यह सिर्फ 12 वर्ग कि.मी. तक सिमट कर रह गई है | झील के चारों तरफ पहाड़ों की श्रृंखलाओं का असीमित विस्तार है | जबरवान और महादेव पर्वत इसके बहुत निकट है | साल के बारहों महीने इन पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से ढकी रहती है | पहाड़ों की तलहटी में विस्तारित हरीतिमा और ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की कतारें झील की शोभा को एक नये आयाम पर प्रसारित करती हैं | झील के बीच में एक छोटा सा द्वीप उभरा हुआ है, जिसे चार चिनार कहा जाता है | इस द्वीप को बड़े परिश्रम के साथ एक सुंदर उद्यान की शक्ल दे दी गई है | इस द्वीप को देखने के लिए पर्यटकों के शिकारे इसके किनारे हमेशा भीड़ लगाये रहते हैं | नेहरू पार्क भी इसी झील में है | हमने भी अपना शिकारा चार चिनार की तरफ मोड़ा | झील के बीच इस सरसब्ज जमीन को देखकर हमारा मन प्रफुल्लित हो गया और हमने यहाँ काफी समय व्यतीत किया | झील में किनारे-किनारे कमल और कुमुदनी के फूल खिले हुए थे, जिनकी हलकी-हलकी सुगंध प्रात: समीरण के साथ मिलकर प्राणों को नई उर्जा से सराबोर कर रही थी | झील के तैरते शिकारों की गिनती करना मुश्किल था और देशी-विदेशी पर्यटक सुंदर दृश्यावली को अपने०अपने कैमरों में कैद करने के प्रयास में संलग्न थी | बहुतों के हाथों में दूरबीनें भी थीं, जो दूरस्थ पहाड़ियों की शोभा को बहुत करीब देखकर आनंद मग्न हो रहे थे | एक आश्चर्यजनक बात यह देखने में आई कि यहाँ हाउसबोट पर बहुत से स्थानीय लोग भी डेरा डाले हुए थे | डल झील की एक विशेषता यह भी समझ में आई कि मुग़ल बादशाहों ने जितने बाग़-बगीचे यहाँ तामीर किये वे सब के सब इसी डल झील के किनारे स्थित है | हमारा यह भ्रमण प्रात: काल हो रहा था, लेकिन हमें बताया गया कि इस झील में सूर्यास्त देखना एक बहुत सुंदर अनुभव होता है | इसके अलावा चाँदनी रातों में तो इस झील का पानी पिघली हुई चाँदी तरह दिखाई देता है | डल झील की सैर के बाद इससे संलग्न दो अन्य झीलों, नसीम और अन्चार झील को भी देख लेना हमने उचित समझा |
       नसीम झील शहर से 10 कि.मी. दूर है | यह निशात बाग़ के ठीक सामने है | या श्रीनगर से सोनमर्ग जाने वाली सड़क के एक किनारे पर स्थित है | प्रसिद्ध हजरतबल मस्जिद भी इसी झील के किनारे है | एक छोटा सा द्वीप इस झील के भी मध्य भाग में है, जहाँ एक शानदार होटल बना दिया गया है | इस होटल तक पहुँचने का एक मात्र जरिया शिकारा ही है | यह झील भी आगे जाकर डल झील में मिल जाती है | श्रीनगर के सौआरा भाग के पास एक छोटी सी झील और है, जिसे अन्चार झील कहते हैं | लोगों ने अवैद्य कब्जे के साथ इस झील को लगभग पाट सा दिया है | इसके अलावा इसका पानी भी कुछ शहर के नालों से संबद्ध होने के कारण काफी प्रदूषित हो गया है | हमने इस झील को बहुत दूर से देखा और वापस चले आये | उस दिन हमने हाउसबोट पर विश्राम किया |