अमरनाथ यात्रा – अमरनाथ
गुफा
दिनांक 9-8-2006 को मैं अपने पुत्र राजेश के साथ हेलीकॉप्टर पकड़ने हेलीपैड पर
पहुंची। हेलीकॉप्टर ने हम दोनों को पवित्र गुफा से थोड़ा नीचे उतार दिया। मौसम
एकदम से खुशगवार हो गया था और आकाश में बादल लगभग विदा हो गए थे। पहाड़ों के बीच
से झांकते भगवान भुवन भास्कर की किरणें समूचे वन प्रांत की हरीतिमा को अपने
स्वर्णिम आभा का उपहार बांटने लगी थीं। मेरी जन्म-जन्म की अभिलाषा आज पूरी होने जा
रही थी, क्योंकि
मैं बर्फानी बाबा की पवित्र गुफा के प्रवेश द्वार तक आ गई थी। मैं बिल्कुल अभिभूत
थी और मेरा मन एक निर्मल शांति की संवेदना को अपने में समेटे हुए था। जिधर भी
दृष्टि जाती थी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलायें,
ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के घने जंगल और हरीतिमा ओढ़े
सुरम्य घाटियों का एक मोहक संसार दिखाई पड़ रहा था। श्रीनगर से उत्तर-पूर्व दिशा
में 140 कि.मी.
दूर भगवान अमरनाथ की यह पवित्र गुफा है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 14450 फीट (3952मीटर) है। यह गुफा
पीर-पंजाल पर्वत की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित है। इसकी महत्ता यह
है कि गुफा में स्वयंभू रूप में हिम-निर्मित शिवलिंग का प्राकट्य होता है और कुछ
दिनों के बाद स्वयं: विलीन भी हो जाता है। यहां जो कुछ है सब प्राकृतिक है। मानव
निर्मित कुछ भी नहीं है। गुफा का द्वार खुला हुआ है और नीचे की भूमि भी उबड़-खाबड़
खुरदरी तथा पथरीली है। गुफा की कुल लंबाई 60 फीट, चौड़ाई लगभग 30 फीट और ऊंचाई 15 फीट है। गुफा में स्वयं ही शिव लिंग का आकार लेना प्रकृति की
अद्भुत लीला का प्रसाद ही है। इस दैवी चमत्कार को शीश नवाने श्रद्धालुजन देश-विदेश
से लाखों की संख्या में यहां आते हैं, हिम निर्मित शिवलिंग श्रावण की अमावस्या से उसी मास की पूर्णिमा तक
अपने विशालकाय आकार को वृद्धिगत करता हुआ अपने को शनै:-शनै: क्षीण करता जाता है और
फिर अमूर्त हो जाता है। आज तक यह कोई नहीं जान सका है कि पथरीली चट्टानों के बीच
सफेद रुई के फाहे की तरह की वर्क कहां से उद्भुत होती है। अंत: इसे ईश्वरी कृपा का
प्रसाद मान कर आस्थावान लोगों ने इस प्राकृतिक शिवलिंग को अपनी अन्यतम श्रद्धा से
समादृत किया है। यहां स्थित गुफा में गुफा की ऊपरी चट्टान से बूंद-बूंद जल श्रृवित
होता है। यही बूंदे जम कर बर्फ बन जाती है और लगभग 8
फीट का एक विशालकाय शिवलिंग निर्मित हो जाता है।
इस शिवलिंग की गोलाई भी 7फीट व्यास की होती है। अमरनाथजी अपना स्वरूप घटाते-बढ़ाते रहते हैं, लेकिन भक्तों की मान्यता
कि वे लुप्त कभी नहीं होते और दृश्य-अदृश्य रूप में हमेशा इसी गुफा में निवास करते
हैं| इसे भी एक अन्यतम आश्चर्य ही स्वीकार किया जाना
चाहिये कि जिस हिम पीठिका पर अमरनाथ जी लिंग रुप में विराजमान होते हैं, वह हिम पीठिका पक्के
बर्फ की होती है जब की गुफा के बाहर सर्वत्र कच्ची बर्फ मिलती है। इस गुफा में एक
ओर गणेश पीठ और दूसरी ओर पार्वती पीठ भी है। पार्वती पीठ को 51 शक्ति पीठों में
गिना जाता है, क्योंकि
यहां माता सती का कंठ गिरा था। गुफा में एक स्थान पर प्राकृतिक रूप से भस्म भी
प्रकट होती है रहती है, जिसे भक्तगण शिव-प्रसाद मानकर घर ले आते हैं। कहा
जाता है कि भगवान शिव ने सर्वप्रथम माता पार्वती को श्रावण की पूर्णिमा के दिन
अमरत्व प्राप्ति का ज्ञान दिया था और तत्संबंधी एक कथा भी सुनाई थी। इसी कथा को
सुनकर शुकदेव जी ने भी अमरत्व की सिद्धि प्राप्त की थी। यही कारण है कि इस तिथि पर
श्रद्धालु जन यहां बाबा अमरनाथ
जी का दर्शन प्राप्त करने को लालायित रहते हैं। वैसे यह यात्रा गुरु पूर्णिमा से
श्रावण पूर्णिमा तक होती है। इस पवित्र गुफा के नीचे अमरावती गंगा प्रवाहित होती
है। यात्रीगण इस नदी
में स्नान करने के बाद गुफा में हिम-शिवलिंग के
दर्शन के लिए प्रवेश करते हैं।
प्रतिवर्ष श्रावण सुदी
पंचमी को दर्शनार्थियों का दस्ता शारदा पीठ के पीठाधीश्वर शंकराचार्य के नेतृत्व
में श्रीनगर से अमरनाथ गुफा के लिए रवाना होता है। श्रीमद् शंकराचार्य चांदी की एक
छड़ी लिए संत-महात्माओं की टोली के साथ आगे-आगे चलते हैं। स्थान-स्थान पर स्थानीय
जनता द्वारा इस जुलूस का जयकारे के साथ स्वागत किया जाता है। जुलूस की सुरक्षा
कश्मीर पुलिस के अलावा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लोग भी करते हैं। जब देश और
प्रदेश में आतंकवाद का खतरा बढ़ा है और पिछले कई साल इन आतंकवादियों ने
दर्शनार्थियों के जुलूस पर हमला कर जो खूनी खेल खेला था, उसे देखते हुए सतर्कता और सुरक्षा का
बड़ा चौकस बंदोबस्त किया जाता है। धमकी त इस वर्ष भी आतंकवादियों की ओर से दी गई
थी, लेकिन जिस प्रकार की व्यवस्था तथा
घेराबंदी सुरक्षा बलों की ओर से की गई है, उसको भेद पाना इन आतंकवादियों के लिए अत्यंत कठिन है।
आतंकवादी भले ही अपनी कुत्सित सांप्रदायिक सोच के चलते सांप्रदायिक भाई-चारे का
माहौल बिगाड़ने की कोशिश करें, लेकिन कश्मीर के मुसलमान भाई न सिर्फ इस यात्रा को सफल बनाने में
पूरी तरह सहयोग करते हैं, बल्कि वे यात्रियों, दर्शनार्थियों की कदम-कदम पर हिफाजत भी करते हैं। यहां तक कि इस
गुफा की खोज का श्रेय भी एक मुसलमान व्यक्ति को ही जाता है। बूटा मल्लिक नाम के एक
गुर्जर मुसलमान जो भेड़-बकरी चराता था, ने पहली बार बर्फानी बाबा की खोज की थी। कहा जाता है कि इसी क्रम
में उसकी मुलाकात एक साधू से हुई, जिन्होंने उसे कोयले से भरा एक बोरा दिया। बोरे को घर ले आने के
बाद बूटा ने जब उसे खोलकर देखा तो वह चौंक उठा,
क्योंकि वह बोरा सोने की अशर्फियों से भरा हुआ था। फिर उस साधु के
प्रति अपनी कृतज्ञता प्रस्तुत करने जब वह उस स्थान पर पहुंचा तो वह साधु को नहीं
पा सका। उसने उस साधु की खोज गुफा में करने की कोशिश की और वह गुफा में प्रवेश कर
गया। वहां उसे हिम-शिवलिंग का अद्भुत नजारा देखने को मिला। यह खबर जब बाहर की
दुनिया में प्रसारित हुई तो बर्फानी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु जनों का सैलाब
उमड़ पड़ा। परम सिद्ध संत स्वामी विवेकानंद जी ने भी सन् 1898 ईस्वी में इस पवित्र गुफा की यात्रा
कर हिम-शिवलिंग का दर्शन किया था।
अमरनाथ गुफा की खोज के बाद एक पौराणिक संदर्भ भी जुड़ गया। जितना
रोचक इस गुफा में बर्फानी बाबा का प्राकट्य है,
उससे कम रोचक इससे संदर्भित पौराणिक कथायें भी नहीं है। कथा कहती
है कि एक दिन माता पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे स्वामी मैं तो मरणधर्मा हूं
क्योंकि पिछले जन्म में सती के रुप में पैदा हुई थी,
किंतु आप मृत्यु से परे हैं, ऐसा क्यों है? शिवजी ने इसके पीछे अमरकथा को कारण बताया। उन्होंने कहा कि इस अमर
कथा को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति जरा-मृत्यु से परे हो जाता है। इतना सुनने के
बाद माता ने शिवजी से वह अमरकथा सुनाने का आग्रह किया। शिवजी ने माता का आग्रह
स्वीकार कर लिया, लेकिन वे ऐसा एकांत चाहते थे जहां
पार्वती के अलावा कोई दूसरा श्रोता न हो। शिव-पार्वती इस निश्चय के साथ ऐसे स्थान
की खोज में निकल गये। खोज करते हुए वे कश्मीर क्षेत्र के पहलगाम पहुंचे। यहां आकर
शिवजी ने अपने वाहन नंदी बैल का परित्याग कर दिया। इस स्थान का प्राचीन नाम
"बैल ग्राम" था, जो अब पहलगाम हो गया है। पहलगाम से चंदनवाड़ी जाते समय रास्ते में
"नीलगंगा" का दर्शन हुआ। कहते हैं कि सदाशिव क्रीड़ा में माता पार्वती
की आंखों का काजल अपने मुख पर लगा बैठे थे, जिसे उन्होंने एक नदी के जल में धोया था। इस क्रिया में नदी का जल
नीला हो गया और नदी "नीलगंगा" के नाम से प्रसिद्ध हो गई। चंदनवाड़ी
पहुंचकर शिवजी ने चंद्रमा को भी अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया। वहां से वे
"पिस्सूघाटी" गये, जिसका नाम त्रेशांक पर्वत है। इसके पीछे भी एक रोचक कथा है। एक बार
देवता और राक्षस एक साथ शिव-दर्शन के लिए पहाड़ चढ़ रहे थे कि दोनों में पहले
चढ़ने और पहले दर्शन पाने की होड़ लग गई। विवाद आगे बढ़ते-बढ़ते युद्ध का रुप ले
लिया। देवताओं ने शिवजी का ध्यान कर राक्षसों का न सिर्फ संहार किया, बल्कि उनकी हड्डियों का चूरा बनाकर
वहां पर्वत पर बिखेर दिया। जहां-जहां राक्षसों की हड्डियों का पिसा हुआ चुरा बिखरा
वह जगह "पिस्सू घाटी" के रूप में विख्यात हो गई।
शिव-पार्वती आगे शेषनाग झील पहुंचे। लिद्दर नदी जिस पर्वत से निकली
है उसका नाम "शेषनाग पर्वत" है। कथा कहती है कि इस स्थान पर पहुंचकर
शिवजी ने अपने गले में पड़ी सर्पों की माला का भी परित्याग कर दिया। इसी कारण यह
पर्वत और झील "शेषनाग" के नाम से विख्यात हुई। कहते हैं कि जिस स्थान पर
शिवजी ने नागों का त्याग किया था वहां की शिलाओं पर आज भी नागों के चित्र मौजूद
हैं। इससे जुड़ी एक दंतकथा यहां और प्रचलित है। कहते हैं कि इस पर्वत पर एक बलशाली
राक्षस रहता था। वह देवताओं को बहुत त्रास देता था। देवताओं ने शिव की स्तुति कर
उन्हें प्रसन्न किया तथा इस राक्षस से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। शिवजी ने
कहा कि वे इस राक्षस को दीर्घायु होने का वरदान दे चुके हैं। अंत: आप लोग भगवान
विष्णु से इसके लिए प्रार्थना करें। भगवान विष्णु ने देवताओं का निवेदन स्वीकार कर
शेषनाग को उस राक्षस का विनाश करने को कहा। भगवान विष्णु की आज्ञा शिरोधार्य कर
शेषनागजी ने देवताओं के त्रास-मुक्त करने के लिए उस राक्षस का वध किया। इस पहाड़
और झील का नाम फलत: इस कथा से भी संदर्भित हो गया। यहां के लोगों की मान्यता है कि
इस पर्वत के पत्थरों से छोटे-छोटे घर बनाने और झील के जल में स्नान करने से
ब्रह्म -हत्या और गौ-हत्या जैसे पापों से मुक्ति मिल जाती है। शेषनाग झील में
पर्वतीय वनौषधियों का सत्व मिल जाने के कारण इस झील का पानी अत्यंत स्वास्थ्यप्रद
है। भगवान भोलेनाथ का इस क्रम में अगला पड़ाव "पंचतरणी" था। इस स्थान पर
शिव ने माता के साथ तांडव नृत्य किया था और उनकी जटायें शिथील होकर खुल गई थीं, जिससे जटावद्ध गंगा की धारा उन्मुक्त
होकर यहां पांच धाराओं में बहने लगी थी। इस स्थान पर भगवान शिव ने पांच तत्वों--
पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु और आकाश का भी त्याग कर दिया था। यह स्थान मौजूदा समय में
अनंतनाग से दो हिस्सों में प्रारंभ होने वाली यात्रा का संगम स्थल है। यहां बालटाल वाले यात्री भी मिल जाते हैं।
बालटाल से संगम तक की दूरी 11 कि.मी. है। इस स्थान से अमरनाथ गुफा की दूरी सिर्फ 3 कि.मी. की है। पंचतत्वों का त्याग
करने के बाद शिव-पार्वती ने गुफा में प्रवेश किया,
जहां भगवान शिव ने अपना मृग-चर्म बिछाया और उस पर बैठकर
ध्यान मग्न हो गये। कालांतर में उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कालाग्नि रुद्र को
प्रकट कर आदेश दिया कि इस गुफा में निवास करने वाले सभी जीव-जंतुओं को जला दें।
कालाग्नि रुद्र ने उनके आदेश का अक्षरश: पालन किया। बावजूद इसके भगवान शिव की
मृगछाला के नीचे कबूतर का एक अंडा बच गया। शिव की शरण में होने के कारण कालाग्नि
भी उसका बाल-बांका नहीं कर सकी थी। अमरकथा प्रारंभ करने के पहले शिव ने माता
पार्वती को ध्यान से सुनने तथा बीच-बीच में हुंकारी भरते रहने को कहा| उन्होंने यह भी कहा कि हुकारी बंद होने की अवस्था में
वे कथा सुनाना बंद कर देंगे। किंतु देव प्रेरणा से बीच कथा में भवानी को नींद आने
लगी और। उन्होंने हुंकारी
बंद कर दी, लेकिन
उसी समय मृगछाला के नीचे दबा पक्षी का अंडा फूट गया और उससे प्रकट होने वाला जीव
माता की जगह कथा में हुकारी भरने लगा। कथा समाप्ति के बाद शिवजी ने माता को
निद्रामग्न पाया तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि अगर यह निद्रामग्न थीं तो कथा में
हुंकारी कौन भर रहा था। भगवान शंकर ने जब इधर-उधर तलाश किया तो वह पक्षी का बच्चा
उन्हें दिखाई दे गया। शिव ने उसे पकड़ना चाहा तो वह पंख फैलाकर उड़ गया। शिव ने
उसक वध करने के लिए अपना त्रिशूल छोड़ दिया। उसी समय व्यास जी की पत्नी अपने द्वार
पर बैठी जम्हाई ले रही थी, जिसकी वजह से उनका मुंह खुल गया था। तोते के
बच्चे ने उचित अवसर देखकर व्यास पत्नी के मुख में प्रवेश किया और वह उनके पेट में
चला गया। इधर तोते की तलाश में शिवजी व्यास जी के घर पहुंचे और उन्होंने तोते के
बच्चे को बाहर निकालने को कहा। व्यास जी ने किसी ऐसे प्राणी की उपस्थिति अपने घर
में होने की बात सिरे से नकार दी, लेकिन व्यास पत्नी ने स्वीकार किया कि जम्हाई
लेते समय कोई पक्षी उनके मुख में प्रवेश कर पेट में चला गया है। भगवान शिव ने वहीं
डेरा डाल दिया और कहा कि इस पक्षी के बच्चे को बाहर निकलते ही मार डालेंगे। व्यास
जी ने ऐसा न करने के लिए उन्हें बहुत मनाया, लेकिन शिवजी अपना हठ त्यागने को तैयार नहीं थे।
अंततः शिवजी से निराश व्यासजी ने भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से इस समस्या का हल
खोजने की प्रार्थना की। दोनों विभूतियों ने उपस्थित होकर उदरस्थ बच्चे को बाहर आने
के लिए आश्वस्त किया और यह भी कहा कि वह अमर कथा सुनने के बाद स्वयं अमर हो चुका
है। साथ ही वह वेदों के समस्त ज्ञान से भी परिपूर्ण हो चुका है। आश्वासन पाकर तोते
का बच्चा बाहर आया। प्रसिद्ध ऋषि और महान ज्ञानी "शुकदेव"जी महाराज का
प्राकट्य इसी रूप में हुआ और वे अमरत्व के महाप्रसाद से भी विभूषित थे। एक बार
शुकदेव जी ने बहुत आग्रह के बाद इस कथा का वाचन ऋषि-मंडली में करना प्रारंभ किया
तो कथा के प्रभाव से समस्त लोकालोक कंपायमान हो उठा, अतः शिवजी ने
शाप दिया कि यह कथा आगे से अमरत्व प्रदान करने में अक्षम सिद्ध होगी। उन्होंने
बहुत प्रार्थना के बाद इस शाप को संशोधित करते हुए कहा कि आगे से अमरत्व की जगह है
श्रवण करने वाले को शिवलोक की प्राप्ति होगी। यह समूची कथा अब अमरनाथ गुफा और
उसमें अद्भुत होने वाले हिम-शिवलिंग से संदर्भित हो चुकी है।
हम दोनों ने कई सीढ़ियां चढ़ने के बाद इस पवित्र गुफा में प्रवेश
किया। प्रवेश करते ही मेरा मन भूत भावन भगवान शिव के भक्ति आलोक से आलोकित हो उठा
और मुझे लगा कि मैंने जन्म-जन्मांतर की अपनी समस्त यात्रा का पुण्य-लाभ मात्र इस
एक क्षण में अर्जित कर लिया है। मैं किस हद तक विकल,
विहल और विभोर थी, उसका वर्णन मैं शब्दों के माध्यम से नहीं कर सकती। मुझे लगा कि
संभवत: जीते जी मुझे शिवधाम की उपलब्धि हो गई है। हम दोनों मां-बेटे बर्फानी बाबा
के साक्षात स्वरूप का दर्शन कर धन्यत बोध से आप्लाविप्त उठे। गुफा में बूंद-बूंद
जल टपक रहा था। कहा जाता है कि गुफा के ठीक ऊपर रामकुंड है, जहां से यह जल श्रवित होता है। गुफा
में जंगली कबूतरों का डेरा भी बहुतायत मात्रा में है। यहां हमने सफेद कबूतरों का
जोड़ा भी देखा, जिसका दर्शन बहुत शुभ कर माना जाता
है। सबसे विचित्र अनुभव यह था कि गुफा में शीत का प्रकोप बिल्कुल नहीं था। एक
अनुभव यह भी कि यहां आते ही इतनी लंबी और कष्टकर यात्रा की थकान एकदम छूमंतर गायब
हो गई थी। हम आनंद-विभोर थे और एक आध्यात्मिक शांति हृदय को उत्फुल्लता से सराबोर
कर रही थी। हम गुफा के बाहर आये तभी जम्मू-कश्मीर
के राज्यपाल एस.के. सिन्हा के आने की घोषणा की गई और चारों तरफ सुरक्षा का घेरा
मजबूत बना दिया गया। हमने नजदीक से राज्यपाल महोदय को देखना चाहा, लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने हमें रोक
दिया। दर्शन करने के बाद राज्यपाल महोदय वापस चले गए। अभी उन्हें गये आधा घंटा भी
नहीं हुआ था कि साधु-संतों की अगुवाई में छड़ी मुबारक का जुलूस आ गया। गाजे-बाजे
के साथ ध्वजा लिए और जयकारा करते इस जुलूस का उत्साह देखते ही बनता था। हमने यहां
कई अविस्मरणीय चित्र भी अपने कैमरे में कैद किए। वहां से कृतार्थ होकर हम वापस
हेलीपैड पर आये और थोड़ी ही देर में हेलीकॉप्टर से बालटाल पहुंच गए। वहां से टैक्सी
में बैठकर हम वापस श्रीनगर पहुंच गये। वहां नगीन झील के हाउस बोट में भोजन करने के
बाद विश्राम किया। अमरनाथ जी के दर्शन के बाद मन और शरीर दोनों ही प्रफुल्लित थे, इस कारण नींद भी बहुत अच्छी आई। दूसरे
दिन एयर डेक्कन की फ्लाइट पकड़ कर हम दिल्ली पहुंच गये। दिल्ली में मेरे भाई मदन
जी के घर रुक गये। हमारी इच्छा स्वामी नारायण मंदिर,
जिसे अक्षरधाम भी कहते हैं, के दर्शन की थी।
संस्थापक अध्यक्ष: विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका: यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो. 09703982136