अमरनाथ
यात्रा - खीर भवानी मंदिर
खीर भवानी का मंदिर श्रीनगर से लगभग 27 किलोमीटर दूर श्रीनगर-सोनमर्ग पर
स्थित तुलामुला गांव में है। यहां गांधरबल से 3
किलोमीटर दूर एक छोटी सड़क से आवागमन होता है। कश्मीर का हिंदू
जनमानस इस मंदिर के प्रति एक भावनात्मक श्रद्धा से बंधा है। अमरनाथ यात्रा के समय
यहां तीर्थ यात्रियों की भारी भीड़ होती है। यहां के लोग खीर भवानी को
"रगनिया देवी" के नाम से पुकारते हैं। इन्हें दुर्गा माता का ही रूप
माना जाता है। एक समतल घाटी में यह मंदिर ऊंचे-ऊंचे चिनार वृक्षों से घिरा हुआ है।
इस मंदिर से 5 किलोमीटर की दूरी पर मानसबल झील
है।मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव और माता दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित हैं। कहा
जाता है कि इस क्षेत्र का यह अकेला मंदिर है जहां शिव और शक्ति की पूजा- उपासना एक
साथ होती है। सनातन रूप में यहां प्रथा है कि भोग अर्पित करते समय देवी को खीर
अवश्य प्रस्तुत की जाती है। संभवत: इसी परंपरा ने देवी का नामकरण खीर भवानी कर
दिया है। मंदिर का निर्माण एक कुंड के बीच में किया गया है। पाकिस्तान से लगे सीमा
क्षेत्र में होने के कारण वर्तमान समय में मंदिर की देख-रेख और पूजा-पाठ की
जिम्मेदारी सीमा सुरक्षा बल के जवानों को सौंप दी गई है।
माता खीर भवानी के प्राकट्य के संबंध जो कथा यहां प्रचलित है, उसे अद्भुत ही कहा जा सकता है। कहा
जाता है कि एक समय लंकाधिपति रावण ने अपनी घनघोर तपस्या से माता पार्वती को
प्रसन्न कर उनसे लंका में निवास करने का वर प्राप्त कर लिया। उसे यह पता था कि ऐसा
होने पर न सिर्फ उसकी लंका संपत और समृद्ध होगी,
बल्कि वह हर दृष्टि से सुरक्षित भी हो जाएगी। वह माता के विग्रह को
लंका के उत्तरवर्ती क्षेत्र में स्थापित कर अत्यंत प्रसन्न हुआ। माता ने एक कुंड
में अपना निवास बना लिया। इस कुंड की सुरक्षा नागों की एक सेना करती थी। राक्षस
राज रावण देवी की पूजा तामसिक पद्धति से करता था,
जिसमें पशु बलि भी दी जाती थी,
अलावा इसके-उसके अत्याचारों से भी माता बहुत क्षुब्ध थी। त्रेतायुग
में जब भगवान राम ने भगवती सीता को प्राप्त करने के लिए जब लंका पर आक्रमण किया तो
भगवती श्यामा ने हनुमान को आदेश दिया कि वे उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर सती देश
(कश्मीर) ले चलें। माता इस बात को जानती थी कि उनके लंका में रहते रावण को कोई
परास्त नहीं कर सकता। अत: भगवान राम की विजय सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने यहां
से जाना ही उचित समझा। महावीर हनुमान ने माता के आदेश का पालन किया और उन्हें वे 300 नागों के साथ वायु मार्ग से प्रस्थान
किया। देवी पहले विष्णुपाद गई जहां रम्य वनस्थली में कुछ समय विश्राम करने के बाद
दवसर गांव की उपत्यका, लुटकीपुर (अनंत नाग), राईयन, वादीपुर, कोटितीर्थ, चंडीपुर तथा शारदा तीर्थ होते हुए अंत में पवित्र शादीपुर के पास हिमालय
की तलहटी में अपना स्थान बना लिया। वृक्षों से आच्छादित यह भूमि माता की दिव्यता
से विभूषित है। माता ने यहां जिस सप्तकुंड में निवास करना स्वीकार किया उसके वे आज
भी सप्तमात्रिकाओं और वीजा क्षरों सहित सुशोभित है। यहां माता के कुंड की पूजा नैवेद्य, दुग्ध,
मिष्ठान, खीर जैसे सात्विक पदार्थों से प्रारंभ हुई। यह परंपरा आज भी बरकरार है।
इसी
संदर्भ में माता की खीर भवानी की स्थापना की और कथा हमें सुनने को मिली। मुगल शासन
काल के अंतिम चरण में श्रीनगर के एक परम देवी भक्त और उपासक श्रीकृष्णदास टपिल थे।
ये बहोरी कुदल में रहते थे तथा इनकी गणना मान्य विद्वानों में भी होती थी। कहा
जाता है कि एक रात स्वप्न में माता खीर भवानी ने उन्हें दर्शन देकर उस जलमग्न
तीर्थ की खोज करने को कहा जो माता का वास्तविक निवास स्थान है। माता ने यह खोज
नौका द्वारा करने को कहा और यह भी कहा कि एक विशालकाय नाव जल में तैरता हुआ उनका
पथ-प्रदर्शन करेगा। वह नाग तैरता हुआ जिस स्थान पर अपना फण उठाकर खड़ा हो जाएगा
समझना कि मैं उसी स्थान पर निवास करती हूं। पंडितजी ने इस स्वप्न की चर्चा अपने
बंधु-बांधुओं से की तो वे भी प्रसन्न मन इस अभियान में शामिल हो गये। पंडितजी इनके
साथ नौका पर सवार हो गांधार बल की दिशा में आगे बढ़े। कुछ ही देर बाद एक विशालकाय
नाग आकर नौका के आगे-आगे चलने लगा। आंगे बढ़ते हुए नागराज तुलमुला ग्राम के समीप
एक दलदली भूमि पर खड़े हो गये। पंडितजी कृष्ण दास ने उस निर्देशित भूमि पर एक बड़ी
सी लकड़ी गाड़ दी। नागराज ने यहां जल के ऊपर एक षटकोणीय आकार की परिक्रमा की।
नागराज ने जहां-जहां चक्कर लिया, पंडितजी ने वहां-वहां जगह के डंडा गाड़ कर
चिन्हित कर लिया। इस तरह वर्तमान कुंड की सीमा नागराज ने निर्धारित कर दी। फिर
नागराज उस स्थान पर पहुंच कर अपना फण उठाये खड़े हो गए, जहां से उन्होंने
चक्कर काटने की शुरुआत की थी। इतना करने के बाद वह सबके सामने देखते-देखते अदृश्य
हो गये। बाद में भक्तों ने बड़े परिश्रम और सूझ-बूझ से इस षटकोणीय परिक्रमा को एक
कुंड के रूप में परिवर्तित किया। वर्तमान में यह स्थान एक द्वीप जैसा है जिसके
मध्य एक षटकोणीय परिक्रमा स्थित है। इस षटकोणीय परिक्रमा का महत्व भक्तों में
सर्वत्र व्याप्त है और वे इसकी परिक्रमा को देवी कृपा का अवलंब मानते हैं।
कुंड की एक विशेषता यह भी है कि समय-समय पर इसका रंग बदलता रहता
है। विशेषकर जब देश अथवा क्षेत्र पर कोई विपत्ति आसक्त होती है, तो इस अमृत कुंड का जल काला पड़ जाता
है। इसकी एक दूसरी विशेषता यह है कि यदा-कदा जल की सतह पर स्वयंभू यंत्र उभर आते
हैं। ऐसे समय भक्तगण इस यंत्र का दर्शन कर स्वयं को धन्य हुआ मानते हैं। मंदिर में
प्रवेश कर हमने शिव और शक्ति की युग्म-पूजा की। पूजा
के बाद नैवेद्य और पुष्प हमने यज्ञ कुंड में प्रवाहित किये। यहां हम आरती में भी
शामिल हुए और प्रसाद में वितरित हो रही खीर भी ग्रहण की। पूजा-अर्चना के बाद इस
परिसर में स्थापित अन्य देवी-देवताओं का भी दर्शन किये। यहां हमने कबूतरों को दाना
भी खिलाया और प्राकृतिक दृश्यों के कई फोटो भी कैमरे में कैद किये। यहां के बाद
हमने अपनी गाड़ी सोनमर्ग के रास्ते पर डाल दी |
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