Tuesday, 29 July 2014

जामा मस्जिद-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 


जामा मस्जिद-यात्रा दिल्ली की

चाँदनी चौक से थोडा दक्षिण जामा मस्जिद है, जो एशिया की सुन्दर और विशाल मस्जिदों में से एक स्वीकार की जाती है | लाल किला और ताजमहल के निर्माता शाहजहाँ ने इस मस्जिद का निर्माण सन् 1656 में कराया था | इसका परिसर इतना बड़ा है कि एक कतार में यहाँ बीस हजार से ज्यादा लोग एक साथ नमाज अदा कर सकते हैं | मस्जिद का गुंबद और प्रवेश द्वार का वृतखण्ड वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं | शाही इमाम इस मस्जिद के सर्वेसर्वा होते हैं और ख़ास मौकों पर नमाज भी वही पढ़ाते हैं |
क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

चाँदनी चौक बाजार व शीशगंज गुरुद्वारा-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 


चाँदनी चौक बाजार व शीशगंज गुरुद्वारा-यात्रा दिल्ली की

लाल किले के प्राचीर के सामने से एक सीधी सड़क फतेहपुरी मस्जिद तक जाती है | इस सड़क के दोनों तरफ दिल्ली का सबसे पुराना बाजार, जिसे चाँदनी चौक बाजार कहते हैं, बसा हुआ है | यहाँ की सजी-सजायी दुकानें विविध प्रकार के सामानों से भरी पड़ी रहती हैं और खरीदारों की भीड़ भी बराबर बनी रहती है | फुटकर और थोक, दोनों तरह का व्यापार यहीं होता है | यहीं पर गौरीशंकर मंदिर भी है, जो आधुनिक वास्तुकला का एक सुन्दर नमूना है | यहीं पर ऐतिहासिक महत्त्व का कंपनी बाग़ भी है, जो अपनी प्राकृतिक सुषमा के चलते किसी का भी मन मोह सकता है | शीशगंज गुरुद्वारा भी है | चाँदनी चौक चौरस्ता के मध्य में गुरुद्वारा शीशगंज स्थित है | सिख संप्रदाय के लोग इस गुरूद्वारे को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं | यहाँ सन् 11 नवंबर 1675 ई. में औरंगजेब के आदेश से गुरु तेगबहादुर की एक वृक्ष के नीचे शहादत हुई थी और जल्लाद ने उनका शीश धड़ से अलग कर दिया था | जिस स्थान पर उनका शीश गिरा था आज वहाँ गुरुद्वार है | गुरुद्वारा में निरंतर शबद-कीर्तन और लंगर की व्यवस्था चलती रहती है | आज भी वह वृक्ष है, जो तेगबहादुर के शीश की याद दिलाता है | हमारे जत्थे ने भी पूरी श्रद्धा के साथ यहाँ माथा टेका, बाद में प्रसाद और लंगर भी ग्रहण किया |
क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

लाल किला-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 





लाल किला-यात्रा दिल्ली की

दुसरे दिन सुबह जगने के बाद हम फिर अगली यात्रा के लिए जल्दी-जल्दी तैयार हो गये | आज हमें शुरुआत लाल किला से करनी थी, अत:सबसे पहले हम वहीं पहुँचे | मुझे पल में 1969 में पति के साथ की गई यात्रा याद आ गई | लाल किला पुरानी दिल्ली में स्थित है और यह यमुना नदी के किनारे अष्टकोणीय आकार में निर्मित किया गया है | लाल बलुआ पत्थरों से बनी इसकी दीवार का प्रसार 2.4 किलोमीटर में है | इस किले का निर्माण मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने आगरा से अपनी राजधानी दिल्ली स्थानांतरित करने के लगभग नौ साल बाद किया | किले की बुनियाद सन् 1639 में राखी गई और यह 1648  में बनकर तैयार हुआ | शाहजहाँ को नक्काशीदार पत्थरों और संगमरमर से इमारतें बनवाने का बहुत शोक था | विश्व विख्यात ताजमहल का निर्माण भी शाहजहाँ ने ही करवाया था | लाल किला और ताजमहल दोनों ही इस देश की स्थापत्य कला के ऐसी धरोहरें हैं, जिनकी सराहना समूचा विश्व-समुदाय करता है | किले के ठीक सामने दिल्ली की सबसे प्रसिद्ध मार्केट चाँदनी चौक है | किले में दो प्रवेश द्वार हैं, एक दिल्ली गेट और दूसरा लाहौरी गेट | इस किले के निर्माण में कितनी दौलत खर्च हुई होगी, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि फ्रांसीसी यात्री वार्नियर ने लाल किले की सिर्फ छतों की नक्काशी और कलात्मक साज-सज्जा की फ्रांसीसी मुद्रा में 75 करोड़ फ्रैंक आंका था | इसे भारतीय मुद्रा में कई खरब माना जा सकता है | लाल किले में दीवाने-आम, दीवाने-ख़ास, मोती मस्जिद, रंग महल, मुमताज महल जैसी बेहतरीन इमारतें तो है ही, सबसे अधिक आकर्षित करने वाली इमारत शाही हमाम है, जिसे तिन भागों में बाँटा गया है | इन तीनों हिस्से में अलग-अलग ढंग के फव्वारे लगे हैं, जिनसे अलग-अलग सुगंधियों वाला जल प्रसारित होता है | इन सभी हिस्सों में नहरों और पाइप के जरिये जो पानी पहुँचाया जाता है, उनमें गर्म पानी और ठंडे पानी का श्रोत अलग-अलग है | इसे उस युग की तकनीक का कमाल ही कहा जायेगा | लाल किला का महत्त्व स्वतंत्र भारत में इस कारण अभिनंदनीय है कि सन् 1947 में 15 अगस्त की रात को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने इसी लाल किले की प्राचीरों से देश की स्वतंत्रता की घोषणा की थी, स्वतंत्र भारत में इसका निर्वाह परंपरानुसार अब भी हो रहा है और देश के प्रधानमंत्री प्रत्येक 15 अगस्त को इसी लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराते हैं |

क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

पुराना किला-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 





पुराना किला 

पुराना किला प्रगति मैदान के पास एक छोटी पहाड़ी पर खंडहर के रूप में विद्यमान है | इसके ठीक बगल में यमुना नदी बहती है | इस किले के पीछे जो खंडहर है, उसमें बिखरी हुई टूटी-फूटी मूर्तियाँ इस कयास को बहुत हद तक सच साबित कराती है कि प्राचीन इन्द्रप्रस्थ यहीं रहा होगा | इस किले का निर्माण मुग़ल बादशाह हुमायूं ने सन् 1530 में करा था, लेकिन इसे वह पूरा नहीं कर सका था | बाद में हुमायूं के अपदस्थ करने वाले शेरशाह सूरी ने किले को एक मुकम्मल शक्ल देने के अलावा दो मंजिला आठ कोनि वाली मीनारों का भी निर्माण करवाया | यह निर्माण कार्य 1538 से शुरू होकर 1545में पूरा हुआ | किला परिसर में मस्जिद, संग्रहालय,सैनिकों और सामंतों के आवास भी हैं | परिसर में दो ऐतिहासिक इमारतें हैं – एक शहंशाह का किला जो भारतीय-अफगान शैली में निर्मित है और दूसरा लाल पत्थरों से बनी शेर मंजिल है | इसी इमारत में हुमायूं का पुस्तकालय हुआ करता था | मुग़ल बादशाह इसी स्थान पर मीनार की सी सीढ़ियों से उतरता हुआ सन् 1556 में नीचे गिर पड़ा था और उसकी मृत्यु हो गई थी | यह किला प्रसिद्ध लाल किला से पहले की कृति है | किले की पहाड़ी से नीचे उतरने पर एक छोटी सी झील मिलती, जहाँ पर्यटन विभाग की ओर से जल-बिहार का प्रबंध पर्यटकों के लिए किया गया है | यहाँ संगीत के भी मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत होते हैं तथा रात होने पर रंग-बिरंगी लाइटिंग भी होती है | हमने भी नौका-बिहार का आनंद लिया | 
क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

लक्ष्मीनारायण मंदिर

गतांक से आगे 




लक्ष्मीनारायण मंदिर 

कुतुबमीनार देखने के बाद हम लक्ष्मीनारायण मंदिर, जिसे बिड़ला मंदिर भी कहते हैं, देखने गये | इस मंदिर को दिल्ली के प्रमुख मंदिरों में विशेष माना जाता है | मंदिर दिल्ली के मध्य और कनॉट प्लेस के पश्चिम में स्थित है | प्रसिद्ध उद्योगपति राजा बलदेव दास बिड़ला ने इस मंदिर का निर्माण सन् 1938 में करवाया था | इसका निर्माण प्राचीन उत्कल शैली में किया गया है | गर्भगृह में भगवान विष्णु और लक्ष्मी देवी के संगमरमर से निर्मित प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं | महात्मा गांधी भी अपने जीवन-काल में यहाँ अक्सर आया-जाया करते थे | बिड़ला मंदिर में विधिवत पूजा-पाठ करने के बाद हम पुराना किला देखने गये | 

क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

लौह-स्तम्भ

गतांक से आगे 

लौह-स्तम्भ

    भारत के दिल्ली शहर में कुतुबमीनार के पृष्ठ भाग में कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद के विशाल आँगन के भीतर क़ुतुब-परिसर में खड़ा लौह-स्तम्भ पर्यटकों के लिए अजूबा है | पर्यटक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी इस लौह-स्तम्भ को देखकर भौचक हैं | यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है | इसके निर्माण में प्रयुक्त धातुओं की जंग प्रतिरोधी रचना के लिए उल्लेखनीय है | यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-413) से निर्माण कराया गया, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, संभवत: 912 ई.पू. में | पहले यह हिन्दू और जैन मंदिर का हिस्सा था | तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके कुतुबमीनार की स्थापना की |
       
लगभग सोलह सौ से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है | इस स्तम्भ में मौर्ययुगीन कला, खासकर सम्राट अशोक के काल की शिल्प कला की झलक मिलती है | इतना समय बीत जाने के बाद भी इसका लोहा चमकदार और चिकना बना हुआ है, उस पर कहीं कोई जंग नहीं लगी है, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है | यह उस समय की उच्च तकनीक की ही दें है, जिसे लेकर आज तक विद्वान हैरान है | इतिहासकारों ने इस स्तम्भ पर लिखे एक लेख के अनुसार इसे चौथी शताब्दी का बताया है | इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज-स्तम्भ के रूप में खड़ा किया गया था | आलेख के अनुसार इस स्तम्भ का निर्माण चन्द्र नामक एक शक्तिशाली राजा की याद में करवाया गया था | इस राजा की पहचान गुप्तवंश के सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के रूप में की गई थी | चन्द्र राजा द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज-स्तम्भ के रूप में खड़ा किया गया था | यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि इस स्तम्भ के उपरी हिस्से पर गरुड़ की एक प्रतिमा स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तम्भ भी कहते हैं |
        
भाट परंपरा के अनुसार कहा जाता है कि इसे तोमर राजा अनंगपाल,  सन् 1050 में यह स्तम्भ लाये थे, वे दिल्ली के संस्थापक थे | तोमर शासकों के साथ यह मिथक जुड़ा हुआ था कि अगर वे इस स्तम्भ पर से अपना नियंत्रण खो देते हैं, तो उनका साम्राज्य भी नष्ट हो जाएगा |
             
उल्टे कमल के उपरी आकार वाले इस स्तम्भ की कुल ऊँचाई 7.21 मीटर (23.7फीट) हैं, जिसमें इसकी नींव  1.12 मीटर (3फीट 8इंच) गहरी है | इसकी घंटी पैटर्न की ऊँचाई 1.7 मीटर (3फीट 6इंच) है और चारों ओर से पत्थर से निर्मित आधार के ऊपरी परत में लोहे की सलाखों के एक ग्रिड पर टिकी हुई है |  चारों ओर पत्थर का गोलाकार प्लेटफार्म 0.71मीटर (2फीट 4इंच) ऊँचा है | इसका व्यास  420 मि.मी. (17इंच) है जो ऊपर जाकर शिखर पर 306 मि.मी.(12.0इंच) हो जाता है | इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी | स्तम्भ का कुल वजन 6096 कि.ग्रा है |
         
सन् 1961 में इसके रासायनिक परिक्षण से पता लगा है कि यह स्तम्भ आश्चर्य जनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है | भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ.बी.बी.लाल इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस स्तम्भ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलों के टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है | माना जाता है कि 120 कारीगरों ने कई दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया | आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह-स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता | इतने विशाल लौह-स्तम्भ का निर्माण जो लगभग सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति, हमारे देश के प्राचीन धातु कर्म-कौशल को दर्शाता है | इसमें लोहे की  मात्रा 99.70% है, जबकि इसके शेष भाग में फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है | स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं | इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन याने 1 मि.मी.का एक हजारवां हिस्सा) ऑक्साइड की परत भी स्तम्भ को जंग से बचाती है |
       
मान्यता यह भी है कि अगर आप इस स्तम्भ को घेरते हुए पीठ की ओर से दोनों हाथों को मिलाते हैं, तो मुराद पूरी होगी | यह एक लोकप्रिय परंपरा है | भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित इस पुराने लौह-स्तम्भ को दर्शकों के छूने पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है | आगंतुकों की वजह से नुकसान होने के कारण सन् 1997 में स्तम्भ के चारों ओर एक बाड़ का निर्माण किया गया है | क़ुतुबमीनार और कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में स्थित यह स्तम्भ अपनी सारी विशेषताओं के साथ न सिर्फ स्थानीय दर्शकों, बल्कि विदेशियों के लिए भी आश्चर्य एवं आकर्षण का विषय है और निश्चित रूप से यह एक उपहार के रूप में स्थित है | यहाँ क़ुतुबमीनार के अलावा कुछ अन्य दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें जैन दिगंबर मंदिर, जैन दादावाड़ी तथा बलवन का मकबरा शामिल है |


क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

Thursday, 24 July 2014

कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 


कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद-यात्रा दिल्ली की

क़ुतुब मीनार के उत्तर-पूर्व (बगल) में कुव्वैत-उल-इस्लाम की मस्जिद है | इसका निर्माण ई.1198 में कुदुबुद्दीन ऐबक ने किया था | तत्पश्चात उसी वंश के शासक इल्तुतमिश (ई.1210-1235) और अलाउद्दीन खिलजी द्वारा एक कॉफी धनुषाकार स्क्रीन खड़ा किया गया और मस्जिद को विस्तृत रूप भी दिया गया था | मस्जिद का पच्चीकारी किया हुआ गुंबद बहुत भव्य है और इसका निर्माण अरबी-परसियन शैली में किया गया है | लेकिन इसके वृत्तखंड तथा नक्काशी की गई चौकठें भारतीय शिल्प की झलक देती है | यह मस्जिद भारत में निर्मित होने वाली पहली मस्जिद है और इसे दिल्ली के सुल्तानों द्वारा निर्मित प्रथम होने का गौरव प्राप्त है | इस मस्जिद का अवलोकन करने के बाद हम इसी परिसर में शान से खड़ा लौह स्तंभ देखने गए |


क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

क़ुतुबमीनार-यात्रा दिल्ली की

 गतांक से आगे  









क़ुतुबमीनार-यात्रा दिल्ली की

क़ुतुब मीनार दिल्ली के दक्षिणी इलाके के महरौली भाग में स्थित, ईंट से बनी विश्व की सबसे ऊँची अट्टालिका (मीनार) है और इसे वास्तुकला की अफगान शैली का अनयतम उदाहरण माना जाता है | मूल रूप से भारत की सबसे ऊँची मीनार एक प्राचीन इस्लामी स्मारक है | यह वास्तव में एक इस्लामिक विजय स्तंभ है | भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इसके निर्माण पूर्व यहाँ सुन्दर 20 जैन मंदिर थे | उन्हें ध्वस्त करके उसकी सामग्री से वर्त्तमान इमारतें बनी |

कुतुब मीनार पुरातन दिल्ली शहर, ढिल्लिका के प्राचीन किले लालकोट के अवशेषों पर बनी है। ढिल्लिका अन्तिम हिन्दू राजाओं तोमर और चौहान की राजधानी थी । अफगानिस्तान में स्थित ‘जाम की मीनार’ से प्रेरित एवं उससे आगे निकलने की इच्छा, दिल्ली के प्रथम मुसलिम (गुलाम वंश के) शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसका निर्माण सन् 1192 में आरंभ करवाया था, परन्तु केवल इसका आधार ही बनवा पाया | उसके बाद उसी वंश के उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसमें तीन मंजिलों को बढ़ाया और सन्   1368 में फिरोजशाह तुगलक ने पांचवी और अंतिम मंजिल बनवाई | कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक और अलेकजेंडर कनिंघम ने इसके ऊपर एक मंजिल और बनवाने का प्रयास किया था, लेकिन वे असफल रहे | मुसलिम शासन-काल में काजी इसी मीनार से अजान की घोषणा करता था | कुछ इतिहासकारों का विश्वास है कि इसका नाम प्रथम तुर्की सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर पड़ा, वहीं कुछ यह मानते हैं कि इसका नाम बगदाद के प्रसिद्ध संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर है, जो भारत में वास करने आये थे | इल्तुतमिश उनका बहुत आदर करते थे, इसलिए क़ुतुब मीनार को यह नाम दिया गया | क़ुतुब मीनार के विभीन्न वर्गों, पारसो अरबी और नागरी अक्षरों में कई शिलालेख हैं, जिससे इसके निर्माण के इतिहास का पता चलता है | शिलालेख के अनुसार, इसकी मरम्मत तो फिरोजशाह तुगलक ने (1351-88) और सिकंदर लोदी ने (1489-1517) करवाई | मेजर आर.स्मिथ ने इसका जीर्णोद्धार 1829 में करवाया था | मीनार पहले सात मंजिला थीं |
        
मीनार कई बार भूकंप और बिजली हमलों से क्षतिग्रस्त हो गई थी, लेकिन विभिन्न शासको द्वारा मरम्मत और पुनर्निर्माण किया गया था | फिरोजशाह तुगलक के शासन के दौरान, मीनार की उपरी दो मंजिलें बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त हो गई थी, फिरोजशाह द्वारा मरम्मत कर दी गई थी | सन्  1505 में दुबारा भूकंप से मीनार फिर से क्षतिग्रस्त हो गई थी | इसकी मरम्मत सिकंदर लोदी ने करवाई | तत्पश्चात सन् 1794 में, मीनार को एक और भूकंप का सामना करना पड़ा और इस मीनार के प्रभावित हिस्से की मरम्मत मेजर स्मिथ ने की, जो एक इंजीनियर था | उसने मीनार के शीर्ष पर फिरोजशाह के मंजिल के साथ अपनी बनाई मंजिल भी प्रतिस्थापित कर दी | बाद में इस मंजिल को लार्ड हार्डिंग ने सन् 1848 में हटा दिया था, जो वर्त्तमान में बगीचे में डाक-बंगला और मीनार के बीच स्थापित है | फिरोजशाह द्वारा निर्मित यह मंजिल आसानी से प्रतिष्ठित की जा सकती है | मंजिल सफेद संगमरमर से निर्मित की गई है और दूसरों की तुलना में काफी चिकनी है |
        
सन्  1981 से पूर्व, शीर्ष सात मंजिल तक संकीर्ण सीढियों द्वारा आम जनता इस मीनार पर चढ़ सकती थी | मुझे भी दिसंबर 1968 में पति के साथ शीर्ष तक जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था | 4 दिसंबर 1981 को एक दुर्घटना हुई, मीनार की विजली अचानक चली गई | इसकी सीढियों में अँधेरा छा जाने से भगदड़ मच गई, जिससे लगभग 45 लोगों की जानें चली गई | पीड़ितों में अधिकाँश बच्चे थे | क्योंकि सन्  1981 से पूर्व स्कूली बच्चों को ऐतिहासिक स्मारकों को देखने के लिए प्रति शुक्रवार को नि:शुल्क प्रवेश की अनुमति दी गई थी और कई स्कूल समूहों को इसका लाभ प्राप्त हो रहा था | बाद में सार्वजनिक उपयोग वर्जित कर दिया गया है |

मीनार पांच मंजिला है, लेकिन हर मंजिल पर आकार-प्रकार और स्थापत्य दुसरे से भिन्नता लिए हुए है | प्रथम तीन मंजिलों में लाल बलुआ पत्थरों पर कुरान की आयतों की एवं फूल बेलों की महीन नक्काशी करके बनाई गई है | बाकी दो मंजिलों में इन पत्थरों के अलावा संगमरमर का भी इस्तेमाल हुआ है | यह मीनार 72.5 मीटर (237.86 फीट) ऊँची है और इसका व्यास 14.3 मीटर है, जो ऊपर जाकर शिखर पर  2.75 मीटर (9.02 फीट) हो जाता है | इसमें 379 सीढियां हैं | यह कई अन्य प्राचीन और मध्ययुगीन संरचनाओं और खंडहरों से घिरा हुआ है और इसके अलावा कुछ अन्य दर्शनीय स्थल हैं, जिनमे जैन दिगंबर मंदिर, जैन दादावाड़ी तथा बलवन का मकबरा शामिल है | सामूहिक रूप से क़ुतुब परिसर के रूप में जाना जाता है | मीनार के चारों ओर बने अहाते में भारतीय कला के कई उत्कृष्ट नमूने हैं, जिनमे से अनेक इसके निर्माण-काल सन् 1193 या पूर्व के हैं | यह परिसर यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकृत किया गया है | क़ुतुब परिसर में स्थापित मस्जिद देखने गए |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

लोटस टेम्पल/कमल मंदिर-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 


लोटस टेम्पल/कमल मंदिर-यात्रा दिल्ली की

आगे हम कालिका पहाड़ी पर नेहरू प्लेस के पास स्थित लोटस टेम्पल या कमल मंदिर देखने गए | इसे बहाई उपासना स्थल या बहाई टेम्पल भी कहा जाता है, कारण इसे बहाई संप्रदाय के लोगों ने 24 दिसंबर 1986 में तैयार करवाया था, लेकिन आम जनता के लिए यह मंदिर 1 जनवरी 1987 को खोला गया | यह अपने आप में एक अनूठा मंदिर है | यहाँ पर न कोई मूर्ति है और न ही किसी प्रकार का कोई धार्मिक कर्म-काण्ड किया जाता है | बहाई उपासना मंदिर उन मंदिरों में से एक है, जो गौरव, शान्ति एवं उत्कृष्ट वातावरण को ज्योतिर्मय करता है, जो किसी भी श्रद्धालु को आध्यात्मिक रूप से प्रोत्साहित करने के लिए अति आवश्यक है । मंदिर में प्रवेश के लिए किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता | इस मंदिर में ध्यान की कई विधियों के साथ लोगों से प्रार्थना और ध्यान कराया जाता है | यहाँ का शांत वातावरण प्रार्थना और ध्यान के लिए सहायक है । भारत के लोगों के लिए कमल का फूल पवित्रता तथा शान्ति का प्रतीक होने के साथ ईश्वर के अवतार का संकेत चिह्न भी है | यह फूल कीचड़ में खिलने के बावजूद पवित्र तथा स्वच्छ रहना सिखाता है, साथ ही यह इस बात का भी द्योतक है कि कैसे धार्मिक प्रतिस्पर्धा तथा भौतिक पूर्वाग्रहों के अंदर रह कर भी, कोई व्यक्ति इन सबसे अनासक्त हो सकता है ।

मंदिर स्थापत्य वास्तुकार फरीबर्ज सहबा ने तैयार किया है | कहते हैं कि इस मंदिर के साथ विश्वभर में कुल सात बहाई मंदिर हैं | जल्द ही आठवाँ मंदिर भी बनने वाला है। भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के कमल मंदिर के अलावा छह मंदिर एपिया-पश्चिमी समोआ, सिडनी-आस्ट्रेलिया, कंपाला-यूगांडा, पनामा सिटी-पनामा, फ्रैंकफर्ट-जर्मनी और विलमॉट-संयुक्त राज्य अमेरिका में भी हैं। मंदिर बहुत बड़ा है और आधुनिक शिल्पकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है | इस मंदिर के नौ द्वार और नौ कोने हैं | यह उपासना मंदिर चारों ओर से नौ बड़े जलाशयों से घिरा है, जो न सिर्फ भवन की सुन्दरता को बढाते हैं, बल्कि मंदिर के प्रार्थनागार को प्राकृतिक रूप से ठंडा रखने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देते है |  उपासना मंदिर मीडिया प्रचार प्रसार और श्रव्य माध्यमों में आगंतुकों को सूचनाएँ प्रदान करता है | माना जाता है कि नौ सबसे बड़ा अंक है और यह विस्तार, एकता एवं अखंडता को दर्शाता है | मंदिर की निर्मिति एक अष्टदल कमल के रूप में की गई है, इस कारण इसे ‘लोटस टेंपल’ कहा जता है | इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे कमल की आकृति में ढालते हुए किसी स्तंभ का सहारा नहीं लिया गया है, साथ ही पूरे मंदिर का निर्माण सुन्दर संगमरमर से किया गया है | अपनी इस विशिष्ट शैली के चलते इस मंदिर में पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है | मंदिर में पर्यटकों को आर्किषत करने के लिए विस्तृत घास के मैदान,  सफेद विशाल भवन, ऊंचे गुंबद वाला प्रार्थनागार और प्रतिमाओं के बिना मंदिर से आकर्षित होकर हजारों लोग यहाँ मात्र दर्शक की भांति नहीं बल्कि प्रार्थना एवं ध्यान करने तथा निर्धारित समय पर होने वाली प्रार्थना सभा में भाग लेने भी आते हैं। यह विशेष प्रार्थना हर घंटे पर पांच मिनट के लिए आयोजित की जाती है । संध्याकाल में जब सूर्य की किरणें इस मंदिर को आलोकित करती है, तब इसका अभिराम दृश्य अत्यंत मनमोहक दिखाई देता है | सुबह और शाम की लालिमा में सफेद रंग की यह संगमरमरी इमारत अद्भुत लगती है । कमल की पंखुड़ियों की तरह खड़ी इमारत के चारों तरफ लगी दूब और हरियाली इसे कोलाहल भरे इलाके में शांति और ताजगी देने वाला बनाती हैं । इस मंदिर का अवलोकन करने के बाद हम एक विश्वप्रसिद्ध इमारत क़ुतुबमीनार देखने गए |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

‘कनॉट प्लेस व पालिका बाजार’-यात्रा दिल्ली की

गयांक से आगे 




‘कनॉट प्लेस व पालिका बाजार’-यात्रा दिल्ली की

कनॉट प्लेस गोलाकार कॉम्पलेक्स के रूप में निर्मित किया गया है और यह पूरी दिल्ली में खरीदारी का बहुत बड़ा केंद्र माना जाता है | यहाँ उच्चकोटि के होटल और रेस्टोरेंट तो है ही, छोटी-छोटी दूकानों में अनेक प्रकार की कलात्मक वस्तुयें भी बेचीं जाती हैं | इसके ठीक बगल में एक भूमिगत वातानुकूलित बाजार है जिसे ‘पालिका बाजार’ कहा जाता है | यहाँ घर-गृहस्थी के सामानों के साथ ही अन्य उच्च-गुणवत्ता वाली सभी प्रकार की वस्तुओं की दूकानें हैं | खरीदारों की भीड़ यहाँ देर रात तक बनी रहती है |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद


जंतर-मंतर-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 



जंतर-मंतर-यात्रा दिल्ली की

अप्पूघर और प्रगति मैदान का अवलोकन समाप्त करने के बाद हमारे काफिले ने जंतर-मंतर की ओर रुख किया | यह स्थान कोलाहल भरे कनॉट प्लेस से सटा हुआ है | इसका निर्माण लाल बलुआ पत्थरों से किया गया है | जंतर-मंतर देश की प्रमुख चार वेद्यशालाओं में एक है | वेद्यशाला की दृष्टि से इसे विश्व-स्तर की एक अनोखी संरचना स्वीकार किया जाता है | इसकी संरचना में भारतीय खगोल विद्या की झलक मिलती है | इस वेद्यशाला का निर्माण जयपुर के राजपूत राजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने सन् 1724 में कराया था | निश्चित रूप से उनका उद्देश्य ज्योतिष की भारतीय परंपरा में शोध तथा उसके संवर्धन का था | यहाँ वैश्विक स्तर के खगोल-शास्त्री भारतीय ज्योतिष का अध्ययन करने हमेशा आते रहते हैं | एक विलक्षणता यह है कि यहाँ निर्मित स्तंभों की परछाई की गणना कर आकाश में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का पता लगाया जाता है | सवाई राजा जयसिंह द्वितीय की उत्सुकता ज्योतिष के अध्ययन और उसके उन्नयन में सर्वाधिक गंभीर थी, जिसके चलते उन्होंने दिल्ली के इस जंतर-मंतर के तर्ज पर जयपुर, बनारस, मथुरा और उज्जैन में भी ऐसे ही वेद्यशालाओं का निर्माण करवाया था | आगे इस स्थान के बगल में ही नई दिल्ली की शान समझे जाने वाले कनॉट प्लेस की ओर हम बढ़े |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद 

अप्पूघर-यात्रा दिल्ली की


गतांक से आगे 


अप्पूघर-यात्रा दिल्ली की

प्रगति मैदान का सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र अप्पूघर है, जिसे देखने के लिए महिलाओं सहित बच्चों की भीड़ छुट्टियों के दिन यहाँ सर्वाधिक दिखाई देती है | इसे अमेरिका के ‘डिजनी लैंड’ के पैटर्न पर निर्मित किया गया है | यहाँ बच्चों के लिए झूले, घुड़सवारी, मोटर ड्राइविंग और रेल का सफर जैसे मनोरंजक आइटम उपलब्ध कराये गये हैं |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

प्रगति मैदान-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 



प्रगति मैदान-यात्रा दिल्ली की

मकबरे के बाद हम देश के सर्वाधिक सुसज्जित और हरे-भरे मैदान, जिसे प्रगति मैदान कहकर पुकारा जाता है, का अवलोकन करने पहुँचे | पहुँचने के बाद मुझे चमत्कृत रह जाना पड़ा, क्योंकि इस तरह सुनियोजित, परिष्कृत और साफ-सुथरा तथा हरा-भरा सुविस्तृत मैदान मैं पहली बार देख रही थी | हरी घास के मुलायम गलीचे से दबा यह मैदान अपनी अद्भुत छटा बिखेरता है | कई एक फौव्वारे हैं, जो रात में अपनी रंगीनियत बिखेरते हुए सुन्दर प्रतीत होते हैं | इनके अलावा साफ-सुथरी चौड़ी सड़कें और खान-पान की दूकानें भी हैं | मैदान के भीतरी हिस्से में कई ओपेन थियेटर हैं, जहाँ दर्शकों और पर्यटकों के लिए रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं | कई बड़े-बड़े हॉल और सभी राज्यों के पवेलियन भी बने हुए हैं | यहाँ बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शिनियाँ आयोजित होती है | औद्योगिक प्रदर्शनी देखने यहाँ विदेश के लोग भी बड़ी संख्या में आते हैं | यह मैदान भारत सरकार की एक संस्था इण्डिया ट्रेड प्रमोशन आर्गनाइजेशन के अधीन है | विश्व-व्यापार मेले का आयोजन यह संस्था हर साल 14 नवंबर से 28 नवंबर तक करती है और उस समय भारी खरीद-फरोस्त्त होती है | मेले में नई-नई तकनीकों का ज्ञान भी कराया जाता है | यहाँ का सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र अप्पूघर है, जिसे देखने के लिए महिलाओं सहित बच्चों की भीड़ छुट्टियों के दिन यहाँ सर्वाधिक दिखाई देती है |
क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

सफदरजंग मकबरा-यात्रा दिल्ली की

गतांक से आगे 


सफदरजंग मकबरा-यात्रा दिल्ली की 

यह मकबरा दक्षिणी लोदी रोड के अंतिम छोर पर सफदरजंग हवाई अड्डे के निकट स्थित है | इसका निर्माण अवध के द्वितीय नवाब के बेटे ने अपने पिता सफदरजंग की स्मृति में कराया था | इसे मुग़ल सल्तनत की आखरी इमारत माना जाता है और इसके निर्माण का कार्यकाल सन् 1753-54 रहा है | यह चिकने लाल ब्राउन बलुये पत्थर से बनाया गया है | इसके दोनों सिरों पर दो-दो मंजिली मीनारे हैं | इस मकबरे की सुन्दरता को चार चाँद लगाता हुआ एक सुन्दर हरा-भरा बगीचा है | इसकी छतों पर चढ़कर समूचे दिल्ली शहर का सुन्दर दृश्य देखा जा सकता है | 

क्रमश:
संपत देवी मुराराका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

इण्डिया गेट- यात्रा दिल्ली की


गतांक से आगे 




इण्डिया गेट

इण्डिया गेट राजपथ के अंतिम छोर पर एक 42 मीटर ऊँची भव्य इमारत है | इसकी नींव सन् 1921 में ड्यूक ऑफ कनॉट (अंग्रेज) ने विजय-स्तंभ के रूप में रखी थी | यह स्मारक सन् 1931 में बनकर तैयार हो गया था | इसे मूल रूप में ‘ऑल इण्डिया वॉर मेमोरियल’ या ‘अखिल भारतीय युद्ध स्मारक’ भी कहा जाता है | प्रथम विश्व युद्ध और तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध में अंग्रेज सेना के पक्ष में लड़ते हुए 90000 भारतीय जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी, उन सबके नाम इस विजय-स्तंभ पर उल्लिखित है | ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने समय के विश्व-विख्यात वास्तु-शास्त्री ‘एड्विन लैंडसियर लूट्यन्स’ से इसका नक्शा बनवाकर इसे भव्य रूप दिया था | यह साम्राज्य की प्रथम विश्व-युद्ध से मिली विजय का प्रतीक-चिह्न भी माना जाता है |
      
यह स्मारक लाल और पीले रंग का है | यह ग्रेनाईट बलुए पत्थर का बना हुआ है और मूल रूप से जार्ज पंचम के साम्राज्य के भारतीय प्रतिक रूप में बनाया गया है | यह स्मारक 10 सालों बाद वायसरॉय लॉर्ड इरविन के जरिये राष्ट्र को समर्पित किया गया | इसके सामने एक छतरी मौजूद है, जहाँ जार्ज पंचम की कभी मूर्ति हुआ कर ती थी, आजकल वह खाली है | इण्डिया गेट राष्टपति भवन के सामने खड़ा एक भव्य द्वार है, जिसकी ऊँचाई और मजबूत ढांचा बरबस सैलानियों को आकर्षित करता है | यह दुनिया के कुछ सबसे खूबसूरत व विशाल राष्ट्राध्यक्षों के निवास स्थलों में से एक राष्ट्रपति भवन के सामने राजपथ पर स्थित है | राष्ट्रपति का आवास इण्डिया गेट के ठीक सामने लगभग 1 किलोमीटर की सीधी दूरी में है | अंग्रेजों के जमाने में इसे किंग्सवे कहते थे | इस राजपथ के बाद दूसरी महत्वपूर्ण सड़क है, जनपथ | 26 जनवरी यानी गणतंत्र-दिवस के अवसर पर इसी राजपथ पर सेना के तीनों अंगों की परेड भी होती है और देश के सभी प्रदेशों की झांकियां भी प्रदर्शित की जाती है | राष्ट्रपति यहाँ से गुजरने वाली सैन्य टुकड़ियों की सलामी स्वीकार करते हैं | यह परेड राष्ट्रपति भवन से शुरू होकर इण्डिया गेट से होते हुए लालकिले तक जाती है | इण्डिया गेट पर एक वृतखंड के नीचे ‘अमर जवान ज्योति’ भी है जो अहर्निश अखंड जलती रहती है | शुरू में यहाँ अमर ज्योति नहीं थी | यह बाद के सालों में जुड़ी, जब भारत को आजादी मिली | इस ज्योति का आशय देश के उन अज्ञात सपूतों को अपनी मौन-मुख श्रद्धांजलि अर्पित करना है, जिन्होंने नि:स्वार्थ देश-रक्षा में अपने प्राणों की आत्माहुति दी है | भारत पाकिस्तान के बीच हुए 1971 के युद्ध में शहीद होने वाले सैनिकों को भी यहाँ श्रद्धांजलि दी गई है |
         
इण्डिया गेट यूँ तो दिल्ली का प्रतीक है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में यह समूचे भारत का प्रतीक है | ऐसे प्रतीकों में सहज आगरा का ‘ताजमहल,’ मुंबई का ‘द गेटवे ऑफ इण्डिया’ और हैदराबाद का ‘चारमीनार’ है | इण्डिया गेट जितना विशाल और भव्य है, इसके चारों तरफ उतना ही हरा-भरा और खूबसूरत वोट क्लब पार्क स्थित है | इसी पार्क के बीचोबीच यह गेट मौजूद है | इसके आस-पास 3 लाख वर्ग मीटर का मैदान है | कहते हैं कि इण्डिया गेट जिस पत्थर से बना है, वह पत्थर भरतपुर से लाये गए थे | यह विशालकाय स्मारक पत्थर के एक संकरे घेरे की नींव पर खड़ा है और बिल्कुल दरवाजे की तरह ऊपर को उठा है | इस राष्ट्रीय स्मारक का अवलोकन करते हुए मुझे पल में ही पेरिस के ‘आर्क डी. ट्रिम्फ’ की याद आ गई, जिसका मैंने अपनी 2004 की यू. के. यात्रा में अवलोकन किया था | यहाँ पूरे दिन भीड़ लगी रहती है, लेकिन रात में बल्वों की रोशनी में इसकी छटा ही कुछ ओर है | इण्डिया गेट से हमारा काफिला आगे बढ़ा और हम सफदरजंग का मकबरा देखने गये |
क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद



मुग़ल गार्डेन