Tuesday, 29 July 2014

लौह-स्तम्भ

गतांक से आगे 

लौह-स्तम्भ

    भारत के दिल्ली शहर में कुतुबमीनार के पृष्ठ भाग में कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद के विशाल आँगन के भीतर क़ुतुब-परिसर में खड़ा लौह-स्तम्भ पर्यटकों के लिए अजूबा है | पर्यटक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी इस लौह-स्तम्भ को देखकर भौचक हैं | यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है | इसके निर्माण में प्रयुक्त धातुओं की जंग प्रतिरोधी रचना के लिए उल्लेखनीय है | यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-413) से निर्माण कराया गया, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, संभवत: 912 ई.पू. में | पहले यह हिन्दू और जैन मंदिर का हिस्सा था | तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके कुतुबमीनार की स्थापना की |
       
लगभग सोलह सौ से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है | इस स्तम्भ में मौर्ययुगीन कला, खासकर सम्राट अशोक के काल की शिल्प कला की झलक मिलती है | इतना समय बीत जाने के बाद भी इसका लोहा चमकदार और चिकना बना हुआ है, उस पर कहीं कोई जंग नहीं लगी है, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है | यह उस समय की उच्च तकनीक की ही दें है, जिसे लेकर आज तक विद्वान हैरान है | इतिहासकारों ने इस स्तम्भ पर लिखे एक लेख के अनुसार इसे चौथी शताब्दी का बताया है | इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज-स्तम्भ के रूप में खड़ा किया गया था | आलेख के अनुसार इस स्तम्भ का निर्माण चन्द्र नामक एक शक्तिशाली राजा की याद में करवाया गया था | इस राजा की पहचान गुप्तवंश के सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के रूप में की गई थी | चन्द्र राजा द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज-स्तम्भ के रूप में खड़ा किया गया था | यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि इस स्तम्भ के उपरी हिस्से पर गरुड़ की एक प्रतिमा स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तम्भ भी कहते हैं |
        
भाट परंपरा के अनुसार कहा जाता है कि इसे तोमर राजा अनंगपाल,  सन् 1050 में यह स्तम्भ लाये थे, वे दिल्ली के संस्थापक थे | तोमर शासकों के साथ यह मिथक जुड़ा हुआ था कि अगर वे इस स्तम्भ पर से अपना नियंत्रण खो देते हैं, तो उनका साम्राज्य भी नष्ट हो जाएगा |
             
उल्टे कमल के उपरी आकार वाले इस स्तम्भ की कुल ऊँचाई 7.21 मीटर (23.7फीट) हैं, जिसमें इसकी नींव  1.12 मीटर (3फीट 8इंच) गहरी है | इसकी घंटी पैटर्न की ऊँचाई 1.7 मीटर (3फीट 6इंच) है और चारों ओर से पत्थर से निर्मित आधार के ऊपरी परत में लोहे की सलाखों के एक ग्रिड पर टिकी हुई है |  चारों ओर पत्थर का गोलाकार प्लेटफार्म 0.71मीटर (2फीट 4इंच) ऊँचा है | इसका व्यास  420 मि.मी. (17इंच) है जो ऊपर जाकर शिखर पर 306 मि.मी.(12.0इंच) हो जाता है | इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी | स्तम्भ का कुल वजन 6096 कि.ग्रा है |
         
सन् 1961 में इसके रासायनिक परिक्षण से पता लगा है कि यह स्तम्भ आश्चर्य जनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है | भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ.बी.बी.लाल इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस स्तम्भ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलों के टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है | माना जाता है कि 120 कारीगरों ने कई दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया | आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह-स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता | इतने विशाल लौह-स्तम्भ का निर्माण जो लगभग सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति, हमारे देश के प्राचीन धातु कर्म-कौशल को दर्शाता है | इसमें लोहे की  मात्रा 99.70% है, जबकि इसके शेष भाग में फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है | स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं | इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन याने 1 मि.मी.का एक हजारवां हिस्सा) ऑक्साइड की परत भी स्तम्भ को जंग से बचाती है |
       
मान्यता यह भी है कि अगर आप इस स्तम्भ को घेरते हुए पीठ की ओर से दोनों हाथों को मिलाते हैं, तो मुराद पूरी होगी | यह एक लोकप्रिय परंपरा है | भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित इस पुराने लौह-स्तम्भ को दर्शकों के छूने पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है | आगंतुकों की वजह से नुकसान होने के कारण सन् 1997 में स्तम्भ के चारों ओर एक बाड़ का निर्माण किया गया है | क़ुतुबमीनार और कुव्वैत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में स्थित यह स्तम्भ अपनी सारी विशेषताओं के साथ न सिर्फ स्थानीय दर्शकों, बल्कि विदेशियों के लिए भी आश्चर्य एवं आकर्षण का विषय है और निश्चित रूप से यह एक उपहार के रूप में स्थित है | यहाँ क़ुतुबमीनार के अलावा कुछ अन्य दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें जैन दिगंबर मंदिर, जैन दादावाड़ी तथा बलवन का मकबरा शामिल है |


क्रमश:
संपत देवी मुरारका
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

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